17 July, 2012

क्राकोव डायरीज-४-अतीत के सियाह पन्नों से

इतिहास की किताबें हमें 'होलोकास्ट' के बारे में कुछ नहीं बताती हैं. शायद बचपन इस लायक होता भी  नहीं है कि इतिहास की इस क्रूरतम घटना की विभीषिका को समझ सके. मैंने होलोकास्ट के बारे में पहली बार सिलसिलेवार ढंग से २००५ में पढ़ा. इन्टरनेट के इस्तेमाल के वो शुरूआती दिन थे.
---
होलोकास्ट...फाइनल सोल्यूशन टू द जुविश प्रॉब्लम...शोआह...ये कुछ टर्म हैं जो नाजी जर्मन लोगों के द्वारा लाखों यहूदियों के सिस्तेमटिक सामूहिक हत्या को कहा गया है. हिटलर के हिसाब से यहूदी एक निम्न रेस थे और बहुत तरीके ढूँढने के बाद आखिरकार निर्णय लिया गया कि संसार को उनसे छुटकारा दिलाने का एक ही तरीका है...उनकी सामूहिक हत्या.
---
यहूदी मुख्यतः व्यापारी वर्ग होते थे. १६वीं शताब्दी में पोलिश राजा काज्हिमिर महान ने उन्हें पोलैंड में बसने के लिए बुलाया था और व्यापार के लिए अवसर प्रदान किये थे. कज्हिमिर धर्मों की एकता में विश्वास रखता था. उस समय से पोलैंड में बहुत से यहूदी बस गए थे. 
---
द्वितीय विश्व युद्ध के समय जर्मनी ने पोलैंड पर कब्ज़ा कर लिया था. जर्मन फौज...जिसे SS कहते थे ने सिलसिलेवार ढंग से यहूदियों को पहले शहर से बाहर निकाला. क्राकोव शहर से बाहर एक शहर था कजिमिर...जो कि राजा के नाम पर बसा था. यहाँ पर घेट्टो बनाये गए और क्राकोव से सारे यहूदियों को अमानवीय परिस्थिति में रहने को भेज दिया गया. एक कमरे के घर में लगभग २५ लोग रहते थे. कजिमिर से रेल लाइन गुज़रती थी...यहाँ से यहूदियों को दूसरे कोंसन्त्रेशन कैम्प, जैसे कि औस्वित्ज़ भेजने में आसानी होती. 

Memorial at Kazimierz
कजिमिर तक जाने वाली जुविश वाक में तीन घंटे लगते हैं. क्राकोव के मेन मार्केट स्क्वायर से चलते हुए हम कजिमिर पहुँचते हैं. यहाँ पर लोगों की याद में ट्राम स्टेशन के पास मेमोरियल बनाया गया है. जिन यहूदियों को कोंसेंत्रेशन कैम्प भेजा गया उन्हें लगता था कि वे वापस लौट कर आयेंगे इसलिए उन्होंने अपना कीमती सामान जैसे कि सोना और अन्य बहुमूल्य आभूषण फर्नीचर में छुपा दिए. जब घेट्टो से फर्नीचर निकाला गया तो बहुत सारा मेटल निकला...इस मेटल को पिघला कर कुर्सियां बना दीं गयीं और स्क्वायर पर मेमोरियल के रूप में ये कुर्सियां हैं. मेमोरियल ठहरे हुए लोगों का...सफ़र में होने का प्रतीक है. 

काजिमिर आने और यहाँ से कांसेंत्रेशन कैम्प में जाने वाले लोगों को ये नहीं मालूम था कि वहाँ से कोई लौट कर नहीं आएगा. उस स्क्वायर पर खड़े होकर महसूस होता है कि उनमें से कोई भी कहीं नहीं गया है. मरने के बाद भी सारे लोग वापस लौट कर आ गए हैं. उनकी आत्माएं अभी भी वहीं भटकती हैं...कि उनका कुछ सामान यहाँ है जो उन्हें बहुत कीमती लगता है. ये वाकई ठहरे हुए लोगों का स्क्वायर है...जहाँ से कोई कहीं नहीं जाता. 

Ghetto wall
कजिमिर घेट्टो की दीवारों का आर्किटेक्चर उस समय की कब्रगाहों के जैसा था...ये सेमिसर्किल वाली दीवारें लोगों को इस बात का अहसास दिलाने के लिए थीं कि ये तुम्हारी कब्र है...यहाँ से तुम मर कर ही निकलोगे. घेट्टो की दीवार के दो हिस्से अभी भी मौजूद हैं. उनमें से एक ये हिस्सा है. घेट्टो के बची हुयी इमारतों में अब भी लोग रहते हैं. मैं सोच कर थरथरा जाती हूँ कि लोग कैसे उन इमारतों में रह पाते हैं जिनसे इतना क्रूर अतीत जुड़ा हुआ है.

लोगों को घेट्टो में कैद करना फाइनल सोल्यूशन का पहला हिस्सा था...जिसमें यहूदियों को आम नागरिकों से अलग हटा कर रख दिया गया था. वे बाकी पूरी दुनिया से कट गए थे. घेट्टो के बीच गुजरने वाली ट्रेन से अक्सर बाकी पोलिश लोग उनकी मदद के लिए खाना या कभी कभार अखबार फ़ेंक देते थे. एक बार इसी तरह एक ट्रेन से एक पोलिश व्यक्ति ने खाना फेंका तो जर्मन फ़ौज ने देख लिया. उसी वक्त ट्रेन रुकवा कर ट्रेन में सफ़र करने वाले सारे यात्रियों को उसी स्क्वायर पर गोली मार दी गयी. यहूदियों की मदद करने पर न केवल उस व्यक्ति बल्कि उसके पूरे परिवार को उसी समय शूट कर दिया जाता था. 

बहादुरी...किसे कहते हैं? एक फौजी...सैनिक की बहादुरी समझ में आती है...उसे अपनी जान का भय नहीं रहता क्यूंकि वह सोच कर जाता है कि एक न एक दिन मौत आनी ही है...मगर युद्ध में ऐसे कई नायक होते हैं जिनकी गाथाएं मालूम नहीं होती. ना केवल अपनी जान का खतरा, बल्कि अपने पूरे परिवार के मर जाने का खतरा होने के बावजूद अनगिनत पोलिश नागरिकों ने यहूदियों की कई तरह से भाग जाने में मदद की. कई बार ऐसे मौके आते थे कि यहूदी जमीन के नीचे बने नालों से होकर विस्तुला नदी तक पहुँच जाते थे...जहाँ अन्य पोलिश नागरिक उन्हें स्मगल करके दूसरे शहरों और देशों तक पहुंचा देते थे. 

Schindler's Museum
जिन लोगों ने यहूदियों की रक्षा की...कई बार अपनी जान का जोखिम लेते हुए भी, इनमें से एक नाम सबसे ऊपर आता है...ओस्कर शिंडलर का. शिंडलर एक जर्मन था और अपनी फैक्ट्री में उसने यहूदियों को काम पर रखा था...उसने लगभग ११०० यहूदियों की जान बचाई और ये यहूदी आज भी अपने आप को शिंडलर्स ज्यूस कहते हैं. शिंडलर एक विवादित कैरेक्टर है, कई कहानियां कहती हैं कि उसे पहले यहूदियों को सिर्फ इसलिए काम पर रखा क्यूंकि वे मुफ्त में काम करते थे...मगर धीरे धीरे जब उसने देखा कि घेट्टो में किस तरह यहूदियों का क़त्ल हो रहा है तो उसने जी जान से अपनी फैक्ट्री में काम करने वाले यहूदियों की रक्षा की. ओस्कर शिन्दलर की फैक्ट्री का पूरा हिस्सा एक म्यूजियम में तब्दील कर दिया गया है जिसमें द्वितीय विश्व युद्द में होने वाली घटनाओं का ब्यौरा है. ये म्यूजियम देखने में तीन घंटे लगते हैं और मैं अभी तक यहाँ जा नहीं पायी हूँ. 

टूर पर चलते हुए अवसाद इतना गाढ़ा होता है कि कई बार लगता है डूब के उबरने के कोई आसार नहीं हैं. घेट्टो में रहने वाले लोगों की लाचारी...उनकी तकलीफें...हत्या...चीखें...सब कुछ हवा में ठहरा हुआ है. कहते हैं कि आवाजें कहीं नहीं जातीं. मन को थोड़ी शांति म्यूजियम के बाहर यहूदियों की किताब...तालमुड की लिखी एक कहावत से मिलता है...Whoever saves one life, saves the world entire'...जिसने एक जान भी बचाई है उसने पूरी दुनिया की रक्षा की है. तीन घंटे का ये टूर...यहूदी शब्द पर खत्म होता है...शालोम...अर्थात शान्ति...इसे शुरुआत और आखिर में इस्तेमाल करते हैं. 
---
लिखने का वक्त नहीं मिल पा रहा और मानसिक स्थिति भी खराब रह रही है...उसपर यहाँ बहुत बारिशें हो रही हैं. धूप में रहने पर अधिकतर मन प्रसन्न महसूस करता है...बारिशें कुछ दिन तो अच्छी लगती हैं मगर ज्यादा दिन होने पर, खास तौर पर ऐसे किसी अनुभव से गुजरने के बाद अवसाद को ही जन्म देती हैं. बुरे सपनों के कारण नींद एकदम नहीं आती...रात जागते बीतती है और डर इतना लगता है कि अकेले दिन में भी होटल के कमरे में दिल की धड़कन बढ़ी रहती है. 

कल मैं औस्वित्ज़ गयी थी जो कि सबसे बड़ा कांसेंत्रेशन कैम्प था. तीन मिलियन लोग इस कैम्प में मारे गए जिनमें से ९० प्रतिशत यहूदी थे...और ये ऑफिसियल आंकड़े हैं. असल में क्या हुआ था उसकी सही सही मालूमात नहीं है. जब से वापस लौटी हूँ सदमे में हूँ...समझ नहीं आ रहा क्या सोच के खुद को समझाऊं...वो तसवीरें मन से कैसे इरेज करूं. लिख कर शान्ति मिलेगी ऐसा सोच कर पोस्ट लिखने बैठी...पर अब लगता है कि बंद कमरे के इस होटल में और रही तो जान चली जायेगी. इसलिए बाहर टहलने जा रही हूँ. बाहर अनगिन बारिशें हो रही हैं. ठंढ बेतहाशा बढ़ गयी है. शायद शाम को लिख सकूंगी वापस लौट कर...या फिर कल सुबह. 

दुआएँ कीजिये...इस देश के लिए...आत्माओं की शांति के लिए...
और फिर थोड़ी सी उम्मीद बचे तो मेरे लिए भी थोड़ी दुआएँ मांग लीजिए...

4 comments:

  1. इस पोस्ट की चंद लाईनें पढने के बाद आगे हिम्मत नहीं हो रही है. क्रूरता/निर्दयता की पराकाष्टा ही तो मिलेगी उन केम्पों में. सचमुच जब पढने से ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं तो वहां जाकर एहसास करने के बाद की स्थिति क्या होगी. दुआएं...

    ReplyDelete
  2. आप सदी की सर्वाधिक पीड़ासित स्थान देख आयी हैं, मन खिन्न होना स्वाभाविक है।

    ReplyDelete
  3. खिन्नता एक चीज़ है और डर दूसरी. डरो मत... योरोपियनों ने बहुत सबक लिया है इस सबसे... शालोम!

    ReplyDelete

Related posts

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...