29 May, 2012

किस्मत हाथों से गढ़ते हैं...हाथ की लकीरों से नहीं


कल शाम साढ़े छः बजे की ट्रेन है. क्या करे संध्या...मिल आये एक बार जाके उससे, शाम को वहीं पनवाड़ी के दूकान के पास रहेगा. घर में नमक खतमे पर है, दू संझा और चलेगा. लेकिन उ तो कल शाम जा रहा है. रेलवे में एसएम का निकला है उसका, वैसे लड़का तो तेज है. पहले तो लगता था कमसे कम बैंक पीओ तो जरूर करेगा. लेकिन सब जगह धांधली मचा हुआ है, उसपर जेनेरल का तो कहीं निकलना मुश्किल...उसपर किस्मत भी खराब. दू दू बार एसबीआई में निकला लेकिन इंटरव्यू में छंट गया. अब शहर का पिट पिट अंग्रेजी बोलने वाला लड़का सबसे कैसे कम्पीटीशन करेगा गाँव में सरकारी स्कूल से पढ़ने वाला लड़का. ऐसा नहीं है कि अंग्रेजी नहीं आता है...लिखित तो बहुत बढ़िया है लेकिन बोलने में गला सूखता है.

संध्या का मन है कि एक बार जा के उसको देख आये. ट्रेनिंग में जा रहा है तो साल छः महीने उधरे रहेगा...उसपर पोस्टिंग भी उधर साउथ में आएगा तो घर आये पता नहीं कितना दिन हो जाएगा. सुनते हैं साउथ जाने में तीन दिन का ट्रेन का सफ़र है और स्लीपर में ई गर्मी में ऐसा चिलचिलाता धूप लगता है कि ऊपर का सीट तो एकदम तवा जैसा गरम हो जाता है. गर्मी के दिन में स्लीपर में चलना बहुत मुश्किल का काम हो जाता है. भट्टी के जैसा तपता है ट्रेन का पूरा कम्पार्टमेंट. संध्या रोटी फुलाते हुए सोच रही है...मन भी तो वैसे ही भट्टी जैसा तप रहा है. पिंटू भी उसके बारे में सोच रहा होगा क्या अभी? फिर पसीना पोछते हुए ख्याल को झटक देती है. अभी उसके सर पर बहुत चिंता है...बहन का उम्र निकलते जा रहा है, उसका शादी करना है फिर घर भी तो एकदम ढह जाने वाला है. अभी पिछली बरसात में छत इतना चू रही थी कि छापर टापना पहले जरूरी है.

वो कहना चाहती है कि वो जब तक लौट के आये किसी भी तरह बाबूजी को रोके रखेगी कि कहीं शादी का डेट फाइनल ना करें. फिर खुद पर हँसती है...उसकी भी तो उमर अब २८ हो गयी लेकिन बाबूजी सबको दो साल कम करके २६ बताते हैं. स्कूल के टीचर बाबूजी के पास जोड़ जाड़ कर भी दहेज के पैसे नहीं पुरते इसलिए इतने साल से कोई लड़का नहीं मिला है हाथ पीले करने के लिए. अचानक बाबूजी का सोच कर उसका मन भर आता है. कितनी कितनी रातों तक वो लालटेन की रौशनी में परीक्षा की कॉपी जांचना याद आता है. हर कॉपी का पचास रूपया मिलता था. बाबूजी केतना बार तो खाना भी जल्दी में निपटा देते थे कि जेहे एक ठो और कॉपी जंचा जाए. पूजा भी तो उन दिनों माँ सम्हाल लेती थी या फिर जो माँ न सम्हाल सके तो संध्या के पाले में पड़ती थी. कभी कभार संध्या कितना कुढती थी. पूजा का सारा काम करने के चक्कर में उसे स्कूल को देर हो जाती थी. घर में अलार्म घड़ी तो थी नहीं, पूरी पूरी रात उठ कर देखती रहती थी कि उजास फूटी कि नहीं. फिर क्लास में नींद आती रहती थी तो वो पिंटू उससे पहले सवाल बना जाता था.

उसके तरफ कहते हैं कि कोई लड़की कुंवारी नहीं रहती ऐसा माँ पार्वती का वरदान है. संध्या को अखबार में पढ़ी खबर याद आती है बिहार में स्त्री-पुरुष अनुपात ९०१:१००० है. इसलिए हर लड़की की शादी हो जाती है. उसने कभी अपने बारे में सोचा नहीं था लेकिन आजकल पिंटू की दीदी को देखती है तो परेशान होने लगती है. उनका उमर ई साल फरवरी में ३१ हो गया. पहले कितना हँसते खेलती रहतीं थीं, बरी पापड़ बनाने में, बियाह का गीत गाने में, कुएं से पानी खींचने में उनका कोई सानी नहीं था. आजकल हर चीज़ पर झुंझला पड़ती हैं. ई सातवाँ बार है कि लड़का वाला देख कर उनको छांटा है...और लड़का भी कैसा, काला, मोटा, पकोडे जैसा नाक, पूरा मुंह चेचक के धब्बा से भरा हुआ, झुक के कंधा सिकोड़ कर चलता है लेकिन अपने लिए लड़की खोजता है हूरपरी...जैसे उसके लिए कटरीना बैठी है बियाह रोक के. उस रात पिंटू की दीदी खूब रोई थी उसके गले लग के...और संध्या बहुत देर तक उनको समझाते रही थी और उस लड़के को गालियाँ बकते रही थी.

संध्या को कोलेज फाइनल इयर की वो घटना याद आती है. राजेश लाइब्रेरी की आखिरी रो में खड़ा था और अचानक उसे पास आकर बोला उसे कुछ जरूरी बात करनी है. वो इतना घबरा गयी थी कि सीढ़ी से गिरते गिरते बची. दिन भर सोचते रही थी कि उसे क्या बात करनी होगी...अगले दिन सुबह के क्लास के बाद उसके साथ चली थी लाइब्रेरी की तरफ जब उसने बताया था कि उसकी पक्की सहेली उसे अच्छी लगी है और वो चाहता है कि शादी के लिए उसके घर रिश्ता लेकर जाए. संध्या को बस दिशा से पूछना था कि वो राजेश को पसंद करती है या नहीं. संध्या ने अच्छी दोस्त का कर्त्तव्य निभाया था. वे दोनों आज भी मिलते हैं तो राजेश उसका शुक्रिया करते नहीं थकता. उनकी शादी पूरे समाज में पहली बिना दहेज की शादी थी. राजेश के पापा कम्युनिस्ट थे...दहेज लेने और देने के सख्त खिलाफ. राजेश उनका एक ही बेटा था.

कोलेज में उसकी सारी दोस्तों की एक एक करके शादी हो गयी थी. वो बड़े उत्साह से उनकी शादी में गीत गाती थी. आजकल गाँव में रहती है...एमए के बाद कितना पढेगी आगे ये सोच कर गाँव आ गयी है. दिन भर खाली टाइम में या तो टीवी देखती रहती है या मैग्जीन पढ़ती रहती है. स्कूल के लाइब्रेरी में बहुत सी किताबें हैं. आज उसका मन किसी मैग्जीन में नहीं लग रहा था. बहुत मन था कि एक बार जा के बस उसे देख आये. नमक भी तो खतम होने ही वाला था न.

जो संध्या की आदत थी, सोचना ज्यादा करना कुछ नहीं. सो दिन भर सोचती रही लेकिन उससे मिलने नहीं गई. मालूम तो था ही कि आज के बाद उसका चेहरा देखे बहुत बहुत साल हो जाएगा. दिल पे पत्थर रखना लड़कियों को बचपन से ही सिखा दिया जाता है. सो वो भी सिसकारी दबाए बैठे रही दिन भर. अगली शाम जब उसकी रेल का टाइम निकल गया तो गोहाल की पीछे भूसा वाला कमरा में खूब फूट फूट कर रोई...जैसे कलेजा चाक हो गया हो उसका...जैसे वो पूरी पूरी पत्थर ही हो गयी है.

वापस आई तो हर तरफ एक मुर्दा सन्नाटा था...जैसे करने को कहीं कुछ नहीं. बाबूजी रामायण पढ़ रहे थे. माँ चूल्हा धुआं रही थी रात के खाने के लिए. भैय्या का पंजाब से पहला मनीऑर्डर आया था इसलिए घर में सब थोड़े खुश थे. रात को माँ डाल में थोड़ा घी डालते हुए बोली...कैसा कुम्हला गयी है रे लड़की...इतना क्या सोचते रहती है दिन भर. राम जी सब अच्छा करेंगे. रात खटिया पर पड़े हुए संध्या देर तक आसमान के तारे देखती रही सोचती रही कि नसीब वाकई सितारों में लिखा है तो फिर जीवन का उद्देश्य क्या है. हम क्या वाकई दूर तारों के हिसाब से जियेंगे और मर जायेंगे...फिर हाथ की लकीरें क्या हैं. फिर ये क्यूँ कहते हैं कि बांया हाथ भगवान का दिया हाथ है और दांया हाथ वो है जो हम खुद बनाते हैं. स्कूल कोलेज में वो हमेशा सबसे तेज विद्यार्थी रही थी कोलेज में तो डिस्ट्रिक्ट टॉपर थी. फिर उसने कभी नौकरी करने के बारे में सोचा क्यूँ नहीं. नींद आने के पहले वो मन बना चुकी थी कि उसे भी कम्पीटीशन में बैठना है.

अगली सुबह पिंटू के यहाँ से जाकर सब बैंक पीओ की तैयारी का मटेरियल ले आई वैसे भी रद्दी में ही बिकने वाला था सब कुछ. बाबूजी को बता दिया कि जिस दिन अखबार में भैकेंसी निकलेगा उसको भी पेपर फॉर्म ला देंगे. संध्या जी जान से तैय्यारी में जुट गयी. बाबूजी भी उसे दिन रात मेहनत करता देख बहुत खुश हुआ करते थे. उसके पास खोने को कुछ नहीं था...लेकिन अगर उसका कम्पीटिशन में हो जाता तो उसके जैसी बहुत सी लड़कियों के लिए रास्ता खुल जाता. इतने सालों की लगातार पढ़ने की मेहनत काम आ रही थी. एक्जाम में बैठते और पेपर देते एक साल निकल गया. जब एसबीआई में उसका नहीं हुआ तो उसे दुःख हुआ था लेकिन उसने उम्मीद नहीं हारी थी. उसे खुद पर भी यकीन था और भगवान पर भी.

जिस दिन आंध्रा बैंक में पीओ होने का लेटर पोस्टमैन लेकर आया बाबूजी जैसे बौरा गए थे, पूरे गाँव को चिट्ठी दिखा रहे थे...मेरी बेटी अफसर बन गयी है. हमेशा काम के बोझ के कारण झुके कंधे तन गए थे और लालटेन में काम करते धुंधला गयी आँखें चमकने लगी थीं. माँ भी सब काम छोड़ कर उसका बक्सा तैयार करने में लग गयी थी. बक्से के साथ ही नसीहतों की भी भारी पोटली थी. जोइनिंग डेट के आसपास बहुत सी अफरातफरी थी...सारे पेपर ठीक से रखने थे...मन को समझाना था कि गाँव छूट रहा है. इस सब में सांझ तारे सी एक बात चमक जा रही थी...पिंटू की भी पोस्टिंग उसी शहर में है.

आखिर वो दिन आ गया जब माँ और बचपन की सारी सहेलियों से गले लग कर वो ट्रेन पर जा बैठी...उसे ऐसा लग रहा था जैसे शादी के बाद विदा होती है ऐसे सब उसे विदा कर रहे हैं. बाबूजी ट्रेन पर चढाते हुए उसके सर पर हाथ रखते हुए बोले...आप परिवार का नाम ऊँचा किये हैं बेटी...हमेशा घर की मर्यादा का ध्यान रखियेगा. बाबूजी बहुत कम उससे सीधे बात किये हैं...वो उनके कंधे से लग के फफक के रो पड़ी. पूरे रास्ते अपने नए ऑफिस, बाकी साथियों के बारे में सोचती रही. जिंदगी का नया अध्याय शुरू हो रहा था.

ट्रेन हैदराबाद पहुंची तो वो अपनी छोटी सी अटैची लेकर स्टेशन पर उतरी. भीड़ छंटी तो उसने देखा फूलों का गुलदस्ता और एक झेंपी सी मुस्कान लिए पिंटू खड़ा था. शाम के साढ़े छः बज रहे थे. आज पहली बार संध्या को अपने फैसले पर बेहद गर्व हुआ. उस शाम अगर पिंटू से मिलने चली जाती तो उस लंबे इंतज़ार का हासिल कुछ नहीं होता. गलती ये होती कि प्यार में खुद को भूल जाती...मगर उसने प्यार में खुद को और निखार लिया...अपना 'मैं' बचाए रखा. इन्तेज़ार उसने अब भी किया मगर इंतज़ार के समय में कितना कुछ उसने अपने नाम भी लिखा. आत्मविश्वास से लबरेज संध्या ने आगे बढ़ कर पिंटू से हाथ मिलाया. दोनों हँस पड़े.

संध्या ने अपने हाथ की लकीरें देखीं...उसके दायें हाथ में एक लकीर पिंटू के नाम की भी उगने लगी थी. 

9 comments:

  1. awwww lovely ..... desi khushboo se mehki

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  2. वाह पूजा जी ज़िन्दगी की तल्ख़ सच्चाइयों को बहुत खूबी से आपने अपनी कहानी में पिरोया है और सकारात्मक अंत के साथ इसे खुशनुमा बना दिया है...बधाई स्वीकारें

    नीरज

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  3. उम्दा, बेहतरीन अभिव्यक्ति...बहुत बहुत बधाई...

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  4. सच्ची प्रेम कथा जहाँ विवेक दिखता है .नहीं तो बस भावनाएं और शारीरिक आकर्षण में जूझता मन कितना सही निरनय ले पाता है. खुबसूरत कहानी .....सुन्दर पटकथा ....कथन ....संवाद ....लेखन .....पात्र ...मन की स्थिति का चित्रण ....बाकि वही प्रवाह .....

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  5. अपना कुछ सा बचाये रहना होता है, कुछ अपना सा। निष्कर्ष सहन करने की शक्ति निर्णय करते रहने से बढ़ती है..

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  6. खूबसूरत . देहात और छोटे शहरों की बेहतरीन पकड़ दिखाई देती है .

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