25 May, 2012

बोली बनाम भाषा ऐंड माथापच्ची इन बिहारी

इन्सोम्निया...कितना रसिक सा शब्द है न? सुन कर ही लगता है कि इससे आशिकों का रिश्ता होगा...जन्मों पुराना. ट्रांसलेशन की अपनी हज़ार खूबियां हैं मगर मुझे हमेशा ट्रांसलेशन एक बेईमानी सा लगता है...अच्छा ट्रांसलेशन ऐसे होना चाहिए जैसे आत्मा एक शरीर के मर जाने के बाद दूसरे शरीर में चली जाती है. मैं अधिकतर अनुवादित चीज़ें नहीं पढ़ती हूँ...जानती हूँ कि ऐसे पागलपन का हासिल कुछ नहीं है...और कैसी विडंबना है कि मेरी सबसे पसंदीदा फिल्म कैन्तोनीज (Cantonese)में बनी है...इन द मूड फॉर लव. ऐसा एक भी बार नहीं होता है कि इस फिल्म को देखते हुए मेरे मन में ये ख्याल न आये कि ट्रांसलेशन में कितना कुछ छूट गया होगा...बचते बचते भी इतनी खूबसूरती बरकरार रही है तो ओरिजिनल कितना ज्यादा खूबसूरत होगा.

मेरे अनुवाद को लेकर इस पूर्वाग्रह का एक कारण मेरी अपनी विचार प्रक्रिया है. मैं दो भाषाओं में सोचती हूँ...अंग्रेजी और हिंदी...ऐसा लगभग कभी नहीं होता कि एक भाषा में सोचे हुए को मेंटली दूसरे भाषा में कन्वर्ट कर रही हूँ. अभी तक का अनुभव है कि कहानियां, कविताएं और मन की उथल पुथल होती है तो शब्द हमेशा हिंदी के होते हैं और टेक्नीकल चीज़ें, विज्ञापन और सिनेमा से जुड़ी चीज़ों के बारे में सोचना अक्सर अंग्रेजी में होता है. इसके पीछे कारण ये है कि पूरी पढ़ाई अंग्रेजी माध्यम में हुयी है और फिर ऑफिस भी वैसे ही रहे जिनमें अधिकतर काम और कलीग्स के बीच बातें अंग्रेजी में होती रहीं. वैसे तो सभ्य भाषा का इस्तेमाल करती हूँ लेकिन अगर गुस्सा आया तो गालियाँ हमेशा हिंदी में देना पसंद करती हूँ.

मुसीबत तब खड़ी होती है जब कुछ उलट करना पड़े...जैसे किसी कारणवश कुछ मन की बात अंग्रेजी में लिखना हो...कई बार तब अनुवाद करना होता है और हालाँकि ये प्रक्रिया बहुत तेज़ी से घटती है फिर भी मन में कुछ न कुछ टूटा हुआ चूरा रह ही जाता है जो कहीं फिट नहीं होता. ये बचे खुचे शब्द फिर मेरा जीना हराम कर देते हैं. फिल्मों या विज्ञापन पर हिंदी में लिखने पर ऐसी ही समस्या का सामना करना होता है...पूरे पूरे वाक्यांश अंग्रेजी में बनते हैं...फिर उनके बराबर का कुछ हिंदी में सोचना पड़ता है...और कितना भी खूबसूरत सोच लूं ऐसा बहुत कम होता है कि किसी फ्रेज(Phrase) के हिंदी अनुवाद से तसल्ली मिल सके. अच्छा होता न दिमाग में एक स्विच होता जिसे अंग्रेजी और हिंदी की ओर मोड़ा जा सकता जरूरत के हिसाब से.

मुझे ये भी लगता है कि लेखन में, खास तौर से मौलिक लेखन में परिवेश एक बेहद जरूरी किरदार होता है...कांटेक्स्ट के बाहर आप चीज़ों को समझ नहीं सकते और कुछ चीज़ों का वाकई अनुवाद हो ही नहीं सकता है. अनुवाद की सीमा से परे जो शब्द लगते हैं वो अक्सर 'बोलियों/dialects' का हिस्सा होते हैं, इसका कारण होता है कि कई शब्दों के पीछे कहानी होती है कि जिसके बिना उनका वजूद ही नहीं होता...कुछ शब्दचित्र होते हैं जिन्हें समझने के लिए आपको अपनी आँखों से उन दृश्यों को देखना जरूरी होता है वरना शब्द तो होंगे मगर निर्वात में...परिवेश से अलग उनका कोई वजूद नहीं होता. आप भाषा का अनुवाद कर सकते हैं पर बोली का नहीं...ये कुछ वैसे ही है जैसे भाव कई बार कविता में व्यक्त हो सकता है लेकिन गद्य में नहीं.

बिहार के बारे में एक फेवरिट डायलोग है...यू कैन ओनली बी बोर्न अ बिहारी...यू कैननोट इन एनी वे बिकम अ बिहारी...यानि कि आप जन्म से ही बिहारी हो सकते हैं...और कौनो तरीका नै है बाबू...बिहार में पैदा होने के कारण बचपन से अनगिनत बोलियां सुनती आई हूँ...हमारे यहाँ कहावत है...कोस कोस पर बदले पानी, चार कोस पर बानी...अर्थात...हर कोस पर पानी का स्वाद बदल जाता है और चार कोस की दूरी पर बोली बदल जाती है. गाँव में ऐसे लोग होते थे जो अनजान आदमी से पाँच मिनट बात करके उसका घर बता देते थे. बोली पहचान का उतना ही अभिन्न हिस्सा थी जितना कि किसी का नाम. ऐसे लोग रिश्ता तय करने, बर्तुहार आने के समय में खास तौर से बहुत काम के माने जाते थे. यही नहीं गाँव में कोई नया आदमी आया नहीं कि उसे टोहने के लिए इन्हें बुला लिया जाता था.

बातचीत का एक बहुत जरूरी हिस्सा होती हैं कहावतें...पापा जितने मुहावरे इस्तेमाल करते हैं मैं उनमें से शायद ४० प्रतिशत ही इस्तेमाल करती हूँ, वो भी बहुत कम. हर मुहावरे के पीछे कहानी होती है...अब उदहारण लीजिए...अदरी बहुरिया कटहर न खाय, मोचा ले पिछवाड़े जाए. ये तब इस्तेमाल किया जाता है जब कोई बहुत भाव खा रहा होता है...कहावत के पीछे की कहानी  ये है कि घर में नयी बहू आई है और सास उसको बहुत मानती है तो कहती है कि बहू कटहल खा लो, लेकिन बहू को तो कटहल से ज्यादा भाव खाने का मन है तो वो नहीं खाती है...कुछ भी बहाना बना के...लेकिन मन तो कटहल के लिए ललचा रहा है...तो जब सब लोग कटहल का कोआ खा चुके होते हैं तो जो बचे खुचे हिस्से होते हैं जिन्हें मोचा कहा जाता है और जिनमें बहुत ही फीका सा स्वाद होता है और जिसे अक्सर फ़ेंक दिया जाता है, बहू कटहल का वही बचा खुचा टुकड़ा घर के पिछवाड़े में जा के खाती है.

जिंदगी जो अफ़सोस का पिटारा बना के रखी हूँ उसमें अपने घर की भाषा(भागलपुरी/अंगिका) नहीं बोल पाना सबसे ज्यादा सालता है. पटना में रहते हुए पड़ोसी भोजपुरी बोलते थे...दिल्ली में एक करीबी दोस्त भी भोजपुरी बोलता था...तो काफी दिन तक ठीक-ठाक भोजपुरी बोलने लगे थे पर अब फिर से एकदम हिंदी पर आ गए हैं. अधिकतर दोस्तों से बात हिंदी में होती है. लेकिन बिहारी को बिहारी में गरियाने का जो मज़ा है ना कि आह! फिर से कुछ उदाहरणों पर आते हैं...एक शब्द है 'चोट्टा'...बेहद प्रेमभरी गाली है...सन्दर्भ सहित व्याख्या ऐसे होती है...

'शाम ऐसे लगती है जैसे किसी छोटी लड़की के गालों पर किसी बदमाश लड़के ने चुट्टी काटी हो...और उसके सफ़ेद रुई के फाहे जैसे गाल गुलाबी हो गए हों...गुस्से से भींचे होठ लाल...और वो शुद्ध बिहारी गाली देते हुए उसके पीछे दौडी हो.
चोट्टा!'

एक दोस्त है मेरा...उसे बात करते हुए हर कुछ देर में ऐसा कुछ कहना ही पड़ता है...लात खाओगे...मार के ठीक कर देंगे...डीलिंग दोगे बेसी हमको...अपनी तरह बोक्का समझे हो...देंगे दू थाप...ढेर होसियार बूझते हो...तुमरा कुच्छो नहीं हो सकता...कुछ बुझाईबो करता है तुमको...और एक ठो सबसे ज्यादा मिस्युज्ड शब्द है...थेत्थर(verb-थेथरई, study of थेथर एंड इट्स कांटेक्स्ट: थेथरोलोजी). अब इसका अनुवाद करने में जान चले जाए आदमी का. वैसे ही एक शब्द है...चांय...अब  चांय  आदमी जब तक आपको दिखा नहीं दिया जाए आप समझ ही नहीं सकते है कि किस  अर्थ में प्रयुक्त होता है. इसमें इनटोनेशन/उच्चारण बेहद जरूरी हिस्सा है...भाषा में चूँकि शब्दों के अर्थ तय होते हैं पर बोली में शब्द के कहने के माध्यम से आधा अर्थ उजागर होता है.

बचपन से हिंदी में बात करने के कारण कितना कुछ खो चुकी हूँ अब महसूस होता है लेकिन उसे वापस पाने का कोई उपाय नहीं है...अब जब नन्हें बच्चों को अंग्रेजी में बात करते देखती हूँ तो अक्सर सोचती हूँ...पराये देश की भाषा सीखते ये बच्चे कितने बिम्बों से अनभिज्ञ  रह जायेंगे...इन्हें petrichor तो मालूम होगा पर सोंधा नहीं मालूम होगा...सोंधे के साथ गाँव की गंध की याद नहीं आएगी. कितना कुछ खो रहा है...कितना कुछ कहाँ, कैसे समेटूं समझ नहीं आता. स्कूल में सिर्फ युनिफोर्म से नहीं दिमागी तरीके से भी क्लोन बनके निकल रहे हैं बच्चे...मेरी जेनेरेशन में ही कितनों ने सालों से हिंदी का कुछ नहीं पढ़ा...बहुतों को देवनागरी लिपि में पढ़ने में दिक्कत होती है. 

चौकी पर रखा हँसुआ.
इन सब ख्यालों के बीच एक दिन का धूप में बैठ कर अचानक रो देना याद आता है कि जब अचानक से ख्याल आया था कि मेरे बेटी अगर होगी तो उसको कभी कटहल बनाना नहीं सिखा पाउंगी क्योंकि कटहल काटने के लिए जिस हंसुए का इस्तेमाल जरूरी होता है वो उसके बड़े होने तक गायब हो जाएगा. ऐसे ही गायब हो जायेंगे कितने शब्द...कितनी दोस्ती...कितना अपनापन. कि जो इस मिट्टी में पैदा हुए हैं वही जानते हैं कि माथा दुखा रहा है में जो रस है वो सर दर्द कर रहा है में कहाँ.

सागर को सगरवा कहने का सुख...बचपन की याद से लहरों की तरह लौटता...गूंजता...नितुआ गे... बड़ी दिदिया...छोटकी फुआ...कुंदनमा... रे जिमिया...और आखिर में मंच पे पर्दा गिरने के पहले लौटता वो नाम जो बहुत सालों से गुम हो गया है...रे पमियाsssss 

पुनःश्च - कहाँ से कहाँ पहुँच गए...शायद इतना सारा कुछ धीरे धीरे मन में उमड़ घुमड़ रहा था...एक दिन राहुल सिंह जी के ब्लॉग पर छत्तीसगढ़ी पर ये आलेख पढ़ा था तब से.

बिहारी में एक लाजवाब सीरीज अभिषेक के ब्लॉग पर भी चल रही है...पटना की अद्भुत झलकी और कमाल के रंगीन लोग...जरा हुलक के आइये. 

39 comments:

  1. acha lga itna judab aapka bhasha ko lekar..
    insomnia....

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  2. "अनुवाद करने में जान चला जाये आदमी का" ई वाला बेस्ट है।
    आ देखो कैसा संजोग है की तुम्हारा माथा दुखा रहा है आ इधर हमारा गोड़ टटा रहा है :)
    और एक बात जान लो हम पढ़ाई डिगरी से लेके नौकरी तक में आजतक "पंद्रह दूनी तीस तियाँ पैंतालीस चउका साठी पाँचे पचहत्तर छक्का नब्बे सात पिचोत्तर आठे बीसा नौ पैंतिसा झमकझमक्का डेढ़ सौ" से ही जोड़ घटाना करते हैं :) बिन सांस रोके :)
    झमकझमक्का का माने मत पुछना :P हमको भी नहीं मालूम काहे बोला जाता है।

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    1. तुमरे गोड़ टटाने से जाने कैसे तो 'लतखोर' याद आ गया...ई भी एकदम क्लासिक गाली है अपने तरफ का :) :) वैसे ई हिंदी में हिसाब हमको नहीं आता ई से हरदम कमजोर ही रहे. पापा को या घर पर दीदी लोग को टेबल सब भी याद था कितना...स्क्वायर रूट भी और कितना के पावर कितना कि एकदम सुपरपावर लगता था. जिसको हिंदी में जोड़ना घटाना आता है उससे तो कैलकुलेटर वाले लोग मात खा जाते थे रे बाबा. तुम तो हम जितना बूझते थे उससे बेसी होसियार निकले रे!

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    2. वैसे ऊपर वाला पहाडा हमारे UP में भी गाया जाता है, सुनिए...
      पंद्रह दूनी तीस, तिया पेंतालिस, चोके साठ, पना पचहत्तर, छक्के नब्बे, सतते पोंचा, अट्ठे बीसा, नवम पतीसा, धूम-धडाम-डेढ़ सौ..... :))
      वैसे इसे गाने की एक स्पेशल धुन भी है, सुनिए.... SSSSSSSSSSSSS..... दिल की आवाज को सुन....

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  3. कित्ता तो अलाय-बलाय लिख मारा। अनुवाद की एक सीमा होती है। पूरा का पूरा भाव एक भाषा से उठकर दूसरी में चला जाये यह हमेशा नहीं हो पाता।

    जैसे रागदरबारी में श्रीलाल शुक्ल जी ने लिखा है - वे हंसे और आगे का काम भांग ने संभाल लिया।
    इसका पूरा भाव समझने के लिये भांग का चरित्र पता होना चाहिये कि इसमें भांग खाने वाला जो काम करता है वही करता रहता है। हंसता है तो हंसता रहता है , रोता है तो रोता रहता है।

    अब जैसे हमने बनारस में एक बिहारी से छात्र नेता से सुना था- भी बिहारी डोंट भांट आर्गू! भी भांट ओनली फ़ाइट अब बताइये इसका हिंदी/भोजपुरी में कौनौ उल्था संभव है! :)

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    1. :) :) अनूप जी...आप ऐसे खतरनाक सिचुएशन में शांति बनाये रख रहे थे या आग में घी डाल रहे थे? उस समय भी सोच रहे थे...इफ यू फाईट...आई विल राईट अ पोस्ट ऑन दैट :) :) समडे :)

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  4. अभिषेक का बैरीकूल लाजवाब हैं ही, करन जी कर देसिल बयना और आपका भारी राड है... के भी क्‍या कहने.

    छत्‍तीसगढ़ी में एक जाति का नाम जोड़कर कहा जाता है- '' ... कहय मोर बावन फनी, राजा कहय मोर एकेच्‍च ठन, निकल मोर राज ले'' यानि कुछ इस तरह कि कोई कहे- मैं 52 फन में माहिर हूं (इतना होशियार, उपयोगी हूं), इस पर राजा कहता है कि मेरा एक ही फन है, मैं देश-निकाला दे सकता हूं, मेरे राज्‍य से बाहर जाओ.


    डोंट आर्गू, डोंट फाइट, ओनली डिसाइड.

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    1. बैरीकूल की तो हम बड़े वाले फैन हैं :) देसिल बयना भी गाहे बगाहे पढ़ते ही रहते हैं. आज आपने नाम लिया तो एक बार और झाँक आये उधर. अपनी भाषा से जिस तरह का जुड़ाव होता है कि अनजाने ही लोगों को करीब खींच लाती है. पिछली बार जब गाँव जाना हुआ था तो सुल्तानगंज की बस पर बैठे और हर ओर भागलपुरी सुन कर ऐसा लग रहा था जैसे कानों में चाशनी घुल गयी हो.

      इस पोस्ट को लिखने का क्रेडिट तो आपकी उस पोस्ट और फिर हुयी बातचीत को है...सो बहुत शुक्रिया राहुल सर. :) :)

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  5. भासा आ संसक्रिति के चोली-दामन के साथ बा। हमार भासा न रही तs हमार संसक्रितिये बिला जाई। अगंरेजी तs दरिद्र भासा हs । देसी भासा मं एतना न सब्द बाटे के संप्रेसन मं कभियो परेसानी आ रुकावट नईं खे होत। भोजपुरी के एगो सब्द बड़ नीमन हs ...'एथी'(एथिया), एह सब्द के कौनो जोड़ये नईं खे। जवन सब्द मुँह मं अटकल बा ...निकरत नईं खे तs एथी बोल दीं ...समझे बाला समझ जाई। पूछब के केतना गो अर्थ बा एथी के ..तs उत्तर मिली -अनंत। एगो उदाहरन देखीं -"सुनतनी का, हमार कुर्तवा नईं खे मिलत ....कहाँ हिरा गइल बा" अब तनी ज़वाब सुनीं -" व्होइजे तs धरल बा ....तना एथिया मं देखीं न!"
    एगो दूसर उदाहरन- "तोहार ओह कमवा फरिया गइल के ना?" " कवन बाला?" "ऊहे ...एथी बाला"।
    पंजाबी आ सिधी कहिओ चल जाई पर आपन भासा नईं खे छोड़त .....एह परम्परा के हमनियो के अनुसरन करे के चाहीं। पूजा! तू आज बड़ी ज्वलंत प्रस्न उठइले बाड़ू। मारीसस मं भोजपुरी/मैथिली जियता तs बंगलोर मं काहे ना जीई ?

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    1. 'एथी' के तो महिमा अपार बटे...केतना काहिल जाई :)

      आप सही कहते हैं कि भाषा और संस्कृति का चोली दामन का साथ है...भाषा के कितने शब्दों के पीछे पूरी कहानी होती है जो अक्सर गांव बदलते साथ थोड़े बहुत बदलाव रखती है मगर मूल स्वरुप बरकरार रहता है. बैंगलोर में तो हम हिंदी सुनने को तरस जाते हैं...हाँ कभी कभार होता है कि कोई फोन उन पर भागलपुरी बतियाते मिल जाता है तो हम दबे पाँव उसके पीछे थोड़ा देर चल लेते हैं...झूठा ही सही...थोड़े देर को लगने लगता है कि अपने गाँव में कहीं घूम भटक रहे हैं.

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  6. हम तुमको बहुत तोप चीज मानते हैं पूजा... तुम ऐसा जब भी अगल सा चौंकाने वाला लिखती हो बहुत काबिल हो जाती हो... लिखा करो एकदम नयी हो जाती हो... फ्रेश...

    इसी पोस्ट में तुमने कई कई लाइन इतने शानदार ढंग से रखी है पूरा का पूरा मनोभाव उतर आया है...

    चिंता, बोली बोलने का सुख, गायब हो रहे शब्द और अनुवाद सम्बन्धी बातें लाजावाब हैं...
    अभी कुछ दिन पहले मुझे लाल चींटी ने काटा मैं खुजली करते हुए बोलने लगा - साला "पिपड़ी" काट लिया.
    ममता हँसते हँसते पागल हो गयी...

    अबकी घर गया तो और भी बड़े सारे लोकोक्ति सीख के आया हूँ, शब्द भी... जैसे असगरे चल दिए यानी अकेले चल दिए.... मामला फरछाय दियो मतलब मसला साफ़/सुलटा दीजिये..

    आजकल के बच्चे जानकार भी अब ये बोलियाँ नहीं बोलना चाहते, उनको शर्म आती है.

    धानी चुनर, भारी राड़ है इ बादल और ऐसे ही कई सारे पोस्ट में एक बेहद पसंदीदा ये भी. सजदा.
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    यहाँ कमेंट्स भी बड़े अच्छे आ रहे हैं.

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    1. का बात है बाबू...आज तो भोरे भोर चहुंप गए हियाँ? सूरज केन्ने से निकला रे!
      हमको 'खोटा' देखे इतना साल हो गया...एक बार हॉस्टल में देख लिए थे...खुश होकर बोले खोटा तो सारी लड़कियां ऐसे ही हँस पड़ी थीं. बिहारी बोलो तो दिल्ली में फिरि में सबको दाँत चियारने का मौका मिल जाता है.

      और घर का एतना सारा सामान काहे अगोर के बैठे हो जी...लतखोर तुम कम थोड़े हो...लिखना सुरु काहे नहीं करते हो?
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      कमेंट्स तो वाकई बड़े अच्छे आ रहे हैं. अच्छा लगता है न...भाषा पर सोचने और उसपर लिखने के लिए लोग हैं.

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  7. भोरे भोरे ई गज़ब पोस्ट लिख मारी हो... जाने कोंची कोंची तो याद आ गया... बिहार में शायद ही ऐसा कोई घर होगा जहाँ थेत्थर, बनच्चर, बकलोल, भूसगोल नाम का आशीर्वाद न मिला हो... ;-) पापा कटिहार के हैं और माँ पटना की तो घर में भी हिंदी में ही बात होती रही तो हमरे साथ भी यही परेशानी रही माने अंगिका(ठेठी) कभी बोल ही नहीं पाए, कभी कभी जब गाँव से बटाईदार आता है तो वो ठेठी में बोलता है तो हमहूँ कनी-मनी बतिया लेते हैं...जैसे कि कोन फसल लगैलो छें ई बार... :P हंसुआ को तो बैठी बोलते हैं न... पता नहीं, हमको तो इहे पता है...

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    1. दू बजे रात तक जाग के लिखे हैं रे सेखर...ठीक से टाइम देखो...जब जागे तभी सबेरा? तुम भोर में देखे तो हम भोर में लिख दिए...हाय रे! हम रात बेरात भाषा के सेवा में जी जान जुटाए ढिबरी जलाये और ई लईका को देखो...कहना है भोरे भोरे! घोर कलियुग रे राम ;) ;)

      तुम कमसे कम तनी मनी तो बतिया लेते हो...इहे सुनकर जर गए हम तो...हमको तो एक्को लाइन नै आता है बोलना :( :( हँसुआ को बैठी कोई कोई घर में बोलते हैं...हमरे घर में हँसुआ ही बोलते आये.

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    2. हाँ...भुसगोल अच्छा याद दिलाए :) हम तो भूलिए गए थे...विद्या कसम!

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  8. Puja ji मुझे यह बहुत पसंद आया ...मैं यह Facebook पर साझा कर रहा हूँ ...ताकि अन्य लोगों को भी अपने ब्लॉग में सौंदर्य महसूस हो ..काश मुझे भी भोजपुरी याद होती ... :)

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  9. कल किसी का पैर टटा रहा था, तो किसी का कपाड दुखा रहा था..
    मेरा तो पीठी कुरिया रहा था जिस वक्त तुम ये सब लिख रही थी.. :-|

    BTW, हम बिहार में बोली जाने वाली तीनों भाषा कामचलाऊ बोल लेते हैं. मैथिलि, मगही और भोजपुरी. :-)

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    1. परसांत तुम तो एकदम सुपरहीरो हो, ध्रुव के जैसन...और ई झूठ फूस पीठ कुरियाने का डीलिंग मत दो...हम सब बूझते हैं कि दो बजे रात तुमको तुमरा 'दोबजिया बैराग' जागता है सो बैठ के मैथली, मगही और भोजपुरी में किसी को गप्प दे रहे होगे छुटंकी बचवा सब का. :) :)

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  10. मरिंग दी लाठी, फोरिंग कापर
    लाइयिंग दे रेक्सा पहुचायिंग अस्पताल ......
    ... बस पर लिखा होता था... लटकले बेटा तो गेले बेटा..... बचपन में तो माथा में भूसा भरा होता था हमारे...
    बिहारी मतलब कई भाषाओँ का साझा संगम... भोजपुरी, मैथिलि, अंगिका, मगही और इन सबके बीच कई बोलिया....ओल ...बकलोल... . और फिर भाषाई इन्नोवेशन... आनंद आ गया...

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  11. daiya re daiya.........ee darbhangakumari barka bujhbai.ya..

    je thure se 'thor'...pher nib ke tor....chatiya sab ke pakar......aa bilag pe dhar
    ......sab bani gelai lat-khor.....aab ta' bha gel hatai bhor'.......

    ee padhke agar kalla-kan-kana-ne lage ta' 2/4 lili-mouni gariya ujhal dena...bujhe....

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  12. भाषा-बोली को लेकर की गयी सार्थक माथापच्ची:)

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  13. बिहार में दू साल बिता कर बस यही लगता है कि बिहार आत्मसात करने के लिये वहाँ जन्म लेना आवश्यक है।

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  14. हम तौ अवधी वाले होई मगर इ तौ जंबी करित
    है की अपने भाषा म बतियाये कई मजा अलग बाय
    भोजपुरी से भी अच्छा नाता है ननिहाल बनारस में होने से गर्मी
    की छुट्टियाँ वहीँ बीतती थी इसलिए उन पर अच्छा रियाज है
    अभी भी बनारस में भोजपुरी में ज्यादा बात करना पसंद करता हूँ
    सबसे बड़ा फायदा ये होता है की आपको कोई बेवकूफ बनाने की जल्दी
    हिम्मत नहीं करता | अभी पिछले साल गोवा में कई दुकानदारों से मुलाक़ात
    हुई कोई बनारस का आजमगढ़ का जौनपुर जब उनसे बात भोजपुरी में होने लगी
    तो वे सामान का पैसा लेने को तैयार नहीं कि कोई तो बहुत दिन बाद मिला
    अपनी भाषा में बात करने वाला |
    अपनी भाषा का रस कहीं नहीं |
    क बबुनी तू त अईसन लिख कर अक्दमै से छा गइलू|

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  16. "ट्रांसलेशन की अपनी हज़ार खूबियां हैं मगर मुझे हमेशा ट्रांसलेशन एक बेईमानी सा लगता है..."
    बात से कुछ कुछ सहमत हूँ पर असहमित दर्ज़ कराने से भी खुद को रोक नहीं पाऊंगा.क्या मूल का भी कोई एक सर्वव्यापी वस्तुनिष्ठ अर्थ होता है?रचनात्मक लेखन में मूल को सब अपनी अपनी तरह से समझते है या कहें ग्रहण करते है.कविता को तो एक ही आदमी बार बार नये अर्थों में समझता है.अनुवाद में हम कई बार 'एक रूपांतरित मूल' या बेहतर मूल को ही पढ़ रहे होतें है....

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    1. शुक्रिया संजय जी...आपकी बात भी थोड़ी थोड़ी समझ में आती है...आपकी टिप्पणी एक दूसरी दिशा को इंगित करती है जिसपर मेरा ध्यान नहीं गया था.

      पॉइंट १. अनुवाद को लेकर मेरे पूर्वाग्रहों की बात कर रही हूँ.
      पॉइंट २. भाषा का अनुवाद हो सकता है, बोली का अनुवाद मुश्किल है. Language vs Dialect. भाषा में बहुत हद तक शब्दों के अपने तयशुदा अर्थ होते हैं, जबकि बोली(dialect)व्यक्तिपरक होती है.

      आइसोलेशन में देखें तो ये वाक्य पढ़ कर यही लगता है कि मुझे हमेशा ट्रांसलेशन बेईमानी लगता है...पर जैसा आगे कहती हूँ...ये मेरा पूर्वाग्रह है...मेरी अपनी कमजोरी है कि मैं अनुवाद एकदम ही नहीं कर पाती हूँ इसलिए मुझे लगता है कि अच्छे से अच्छे अनुवाद में भी कुछ न कुछ छूट जाता होगा.

      क्या मूल का भी कोई एक सर्वव्यापी वस्तुनिष्ठ अर्थ होता है?
      मूल तो व्यक्तिपरक होता है...जैसा कि आप कहते हैं...एक ही भाषा में होने के बावजूद दो लोग एक ही रचना के दो अर्थ समझ सकते है जो उनके अपने अनुभवों और पूर्वाग्रहों पर आधारित होगा...ऐसे में आपका कहना सही है कि अनुवाद में हम एक बेहतर मूल को पढ़ रहे होते हैं.

      मैं भाषा से ज्यादा बोली की बात कर रही हूँ जहाँ हर शब्द एक अनुभव, एक कहानी, एक लोकोक्ति से उभरता है...उन्हें किसी भाषा में अनुवादित करने के बहुत से सन्दर्भों की जरूरत पड़ेगी...ऐसे में अनुवाद करना थोड़ा मुश्किल हो जाएगा. आलेख थोड़ा और विस्तार खोजता है...किसी दिन फिर इसपर लिखती हूँ.

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    2. बात बिलकुल समझ में आती है कि बोली कुछ लोगों या समूहों का साझा और विशिष्ट व्यक्तिपरक अनुभव होता है जिसमें शब्दों के अर्थ बहुत सारे सन्दर्भों से बंधे रहतें है..इसमें अनुवाद कई बार अब्सर्ड लगता है..अनुवाद को लेकर संशय मन में बना रहता है..
      मेरा आग्रह तो यही और इतना ही है कि अनुवाद को भी हम (मूल)खराब या अच्छी रचना की तरह ही पढ़ रहे होते है, अगर हम उसे किसी तुलनात्मक नज़रिए को रख कर नहीं पढ़ रहें है तो.

      बोली में बरताव के सुख पर इतने अच्छे आलेख को साझा करने का शुक्रिया.

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  17. देखिये तो पूजा..आपके ब्लॉग पर कित्ता दिन बाद आए और ई एकदम खतरनाक टाईप का पोस्ट मिला पढ़ने को...एगो हम लोग का बहुत ही सरीफ दोस्त है...मुराद...बेचारा ऊ बिहार में रह कर भी बिहारी भाषा नहीं बोलता था..उ अलगे कैटेगरी का था....और नाही कभी लफुआ टाईप बतियाता था...एकबार जब हैदराबाद गए तो उसकी दोस्त भी थी और ऊ भी...हम टाईट टाईट बिहारी शब्द फेकने लगे जईसे जरलाहा...मुझौसा..पतरसुक्खा....etcc...उसकी दोस्त और उसका उस दिन बहुत ज्ञानवर्धन किये थे हम :P

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    1. ऐसा सरीफ लोग तुमरे जैसन लईका के चक्कर में कौन पुराने जन्म के पाप से पड़ जाता है रे अभिषेक! अब बतलाओ...दोस्त के सामने ऐसन ऐसन काम करोगे तुमको वहीं हुसैन सागर में ढकेल नहीं दिया?

      लेकिन ऊ भला आदमी रहा होगा बिचारा :) :)

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  18. पूजा, पोस्ट अच्छी लगी... ऊपर बहु वाला मुहावरा पढ़ कर UP का एक मुहावरा याद आ गया..
    "मनाये-२ खीर ना खाए, झूठी पत्तल चाटन आये"... :))

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  19. जे बात ...आज लिखी न बमपिलाट , लपकौआ पोस्ट । हम कै दिन से सोच रहे थे कि ई लहरवा में जुआरभाटा अईबे नय किया , ई लईकि कै महीना साल से पटना नय गई है लगता है । सुनो ढेर नय कहेंगे खाली दुई ठो बतवा कह के जा रहे हैं । ई अब आप आप हमसे नय खेला जाएगा तुम त पटनिया रिस्तेदार निकली न जी इसलिए आ दूसरका ई कि ई पोस्ट को लईले जा रहे हैं साथे देखो का का सचित्र व्याख्या करते हैं ,,पोस्टवा का भी आ टिप्पिया सब का भी ..बताते हैं लौटती डाक से

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    1. :) :)
      चलिए...आपका दुनो बतिया मान लिए. मेरे इलाके में लौटती डाक वाला पोस्टमैन का कोई भरोसा नै होता है...देखते हैं हियाँ कोंची आता लौटती डाक में :)

      पटना छोड़े ७ साल हुआ...२००५ में दिल्ली आये थे...तब से लौट के जाना नै हुआ है. घर देवघर है तो उधर से निपट जाते हैं.

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  20. bahute sundar post ba !
    abhi ham jab aapan gaon (buxar) gaiil rahni t ego nya shabd sikhni "RASBACHAK "
    jug jug jiya juta siya
    paisa mili t daru piaya !!

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  21. बहुत अच्‍छा विचार-विमर्श हुआ भाइयों।

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  22. Wow....Ghar ki yaad aa gaye.. :)

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  23. बस पढ़े का मन किया त चल आए.... बिहार का बहुत याद आ रहा है, आज हम यहाँ एगो लड़का से बोले हमरा गोर टटा रहा है तो उसका चेहरा अइसन हो गया जैसे हम कोनों इंक्रिप्शन लगा दिये हों....

    दिल करता है कोई नाम के आगे "रे" लगाकर आवाज़ लगा दे.... सच में ये परदेस ही है... अपना देस तो पीछे छूट गया, शायद कभी लौट भी न पाएँ....

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  24. लेकिन बिहारी को बिहारी में गरियाने का जो मज़ा है ना कि आह!का रे खोखा, थोडा बुझा ल न का .........सच में बचपन में पहुँच गया, मेरे सारे दोस्त भोजपुरी बोलते थे, और मैं भी सीख गया, घर में अवधि बोली जाती थी तो वह भी आती है, लेकिन ये भी सच है की जो मिठास अपनी भाषाओँ में आती है वह कहदी बोली में कहाँ, यहाँ तो भावनाएं लुप्त हो जाती हैं ...............
    थेत्थर(verb-थेथरई, study of थेथर एंड इट्स कांटेक्स्ट: थेथरोलोजी)- पी यच डी किया हूँ हम थेथ्रोलोजी में, इतना थेथर थे हम कि कोई कुछुवो कह रहा है, हम अपने गाते रहते थे, लास्ट में उ खुद्दे उठ के चला जाता था, अउर हम खूब हँसते थे बोका पर :)

    बचपन से हिंदी में बात करने के कारण कितना कुछ खो चुकी हूँ अब महसूस होता है लेकिन उसे वापस पाने का कोई उपाय नहीं है...अब जब नन्हें बच्चों को अंग्रेजी में बात करते देखती हूँ तो अक्सर सोचती हूँ...पराये देश की भाषा सीखते ये बच्चे कितने बिम्बों से अनभिज्ञ रह जायेंगे...इन्हें petrichor तो मालूम होगा पर सोंधा नहीं मालूम होगा...सोंधे के साथ गाँव की गंध की याद नहीं आएगी. कितना कुछ खो रहा है...कितना कुछ कहाँ, कैसे समेटूं समझ नहीं आता. स्कूल में सिर्फ युनिफोर्म से नहीं दिमागी तरीके से भी क्लोन बनके निकल रहे हैं बच्चे...मेरी जेनेरेशन में ही कितनों ने सालों से हिंदी का कुछ नहीं पढ़ा...बहुतों को देवनागरी लिपि में पढ़ने में दिक्कत होती है.

    अपनी एक कविता याद आ गयी, नीचे की लिंक पर पढ़ सकती हैं :

    http://awaraniraj.blogspot.in/2013/01/blog-post_25.html

    आभार।

    -नीरज

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