24 February, 2012

शहरयार के बहाने आर्टिस्ट और आर्ट पर...


वो बड़ा भी है तो क्या है, है तो आखिर आदमी
इस तरह सजदे करोगे तो खुदा हो जाएगा 
-बशीर बद्र 

अमृता प्रीतम की रसीदी टिकट का एक हिस्सा है जिसमें वो बयान करती हैं कि उनकी जिंदगी में सिर्फ तीन ही ऐसी मौके आये जब उनके अंदर की औरत ने उनके अंदर की लेखिका को पीछे छोड़ कर अपना हक माँगा था. एक पूरी जिंदगी में सिर्फ तीन मौके...

ऐसा मुझे भी लगता है कि लेखक किसी और दुनिया में जीते हैं...वो दुनिया इस दुनिया के पैरलल चलती है...उसके नियम कुछ और होते हैं...और इस दुनिया के चलने के लिए ऐसे लेखकों का होना भी जरूरी है जो शायद इस दुनिया के लिहाज़ से एक अच्छे इंसान न हों...एक अच्छे पिता, पति या बेटे न हों...हमारा समाज ऐसे ही प्रोटोटाइप बनाता है जहाँ बचपन से ही घोंटा जाता है कि सबसे जरूरी है अच्छा इंसान बनना. भला क्यूँ? कुछ लोगों की फितरत ही ऐसी होती है कि वो अच्छे नहीं हो सकते...समाज के तथाकथित मूल्यों पर...मगर अच्छे होने की कसौटी पर शायर को क्यूँकर घिसा जाए? अच्छी पूरी दुनिया पड़ी है...एक शायर बुरा होकर ही जी ले...माना उसके घर वाले उससे खुश नहीं थे...पर इसी को तो ‘फॉर द लार्जर गुड ऑफ ह्युमनिटी’ कहते हैं. गांधी जी के बेटे हमेशा कहते हैं कि वो एक अच्छे पिता नहीं थे. अगर सारे लोग एक ही अच्छे की फैक्ट्री से आने लगे तो फिर सब एकरस हो जाएगा...फिल्म में विलेन न हो तो हीरो कैसे होगा. उसी तरह जिंदगी में भी बुरे लोगों की जगह होनी चाहिए....और हम सबमें इतना सा तो बड़प्पन होना चाहिए कि कमसे कम शायर को उसकी गलितयाँ माफ कर सकें. उसकी पत्नी उसके साथ न रहे पर उससे अलग होकर तो उसे उसके जैसा बुरा होने के लिए माफ कर सके...कमसे कम मरने के बाद. ऐसी नफरत मुझे समझ नहीं आती. मुझे सिर्फ इसलिए शहरयार की एक्स-वाइफ की बातें समझ नहीं आतीं...मुझे समझ आता अगर वो उनके साथ ताउम्र रहती, घुटती रहती तब उनकी शिकायत समझ आती...पर अलग रहने के बावजूद? किसी के मरने के बाद इल्जाम कि सफाई अगर कोई है भी तो...दी न जा सके.

अच्छे तो बस रोबोट होते हैं...इंसान को गलितयाँ करने का...गलत इंसान होने का अधिकार है...उसपर शायर...पेंटर...गायक...किसी भी आर्टिस्ट को ये अधिकार मिलना चाहिए...थोड़ा सा ज्यादा बुरा होने का अधिकार...थोड़ी सी ज्यादा गलतियाँ करने का अधिकार...वो किसी को अपने दुनिया में लाने के लिए मजबूर नहीं करता...उसकी अपनी दुनिया है...उस दुनिया के होने पर इस दुनिया की बहुत सी खूबसूरती टिकी है. अगर एक खूबसूरत गज़ल की कीमत शायर का टूटा हुआ परिवार है..तो भी मैं खरीदती हूँ उस गज़ल को. एक अच्छी पेंटिंग के पीछे अगर एक नायिका का टूटा हुआ दिल है तो भी मैं खरीदती हूँ उस पेंटिंग को...कि कोई भी सबके लिए अच्छा नहीं हो सकता...और आर्ट हमेशा जिंदगी की इन छोटी तकलीफों से ऊपर उठने का रास्ता होती है. 

कुछ लोगों के लिए एक मुकम्मल इश्क ही पूरी जिंदगी का हासिल होता है...हो सकता है...उनके लिए इतना काफी है कि उन्होने से उसे पा लिया जिससे प्रेम करते थे. पर ऐसा सबके लिए हो जरूरी तो नहीं...सबके जीवन का उद्देश्य अलग होता है. अक्सर हमारे हाथ में भी नहीं होता. पर ये जो कुछ लोग होते हैं...लार्जर दैन लाइफ...उनके लिए कुछ भी मुकम्मल नहीं होता...कहीं भी तलाश खत्म नहीं होती...एक प्यास होती है जिसके पीछे भागना होता है...कई बार पूरी पूरी जिंदगी। मुझे हर आर्टिस्ट अपनेआप में अतृप्त लगता है। उसके लिए जिंदगी से गुज़र जाना काफी नहीं होता...उसके लिए बुरा देखना काफी नहीं होता...वो वैसा होता है...अन्दर से बुरा...टूटा हुआ...बिखरा हुआ. मगर एक आर्टिस्ट अपने इस तथाकथित बुरेपन में भी बहुत मासूम होता है...कई बार चीज़ें वाकई उसके बस में नहीं होतीं...शराब या ऐसी कोई आदत मुझे ऐसी ही लगती है...जो शायद बहुत प्यार से छुड़ाई जा सकती है...शायद नहीं भी। आप संगीत के क्षेत्र में देख लें...कितने सारे आर्टिस्ट ड्रग ओवेरडोज़ से मरते हैं...उन्हें बचाने की कितनी कोशिशें की जाती हैं...पर वो अपनी कमजोरियों, अपनी मजबूरीयों को कहीं न कहीं ऐक्सेप्ट कर लेते हैं तब वो जिंदगी से बड़े/लार्जर दैन लाइफ हो जाते हैं।

कहीं कहीं इनके अंदर की सच्चाई मुझे उस इंसान से ज्यादा अपील करती है जो पार्टी में दारू नहीं पीता पर पीना चाहता है...उसके मन में दबी इच्छाएँ किस रूप में बाहर आएंगी कोई नहीं जानता। कई बार यूं भी लगता है कि एक जिंदगी में अफसोस लेकर क्यूँ मरा जाए...पर समाज बहुत सी चीजों पर रोक लगाता है...नियम बनाता है...जो गलत भी नहीं हैं...वरना अनार्की(Anarchy) की स्थिति आ जाएगी...पर कुछ लोग होने चाहिए जो हर नियम से परे हों...आज़ाद हों...क्यूंकी इस आज़ादी में ही मानवता की मुक्ति का कहीं कोई रास्ता दिखता है। इनपर रोक लगाने वाले वही लोग हैं जो खुले में विरोध करते हैं क्यूंकी मन ही मन वो वैसा ही होना चाहते हैं...स्वछंद...पर इतनी हिम्मत सबमें नहीं होती। 

आर्टिस्ट मजबूर भी होते हैं और मजबूत भी...उतनी टूटन, उतना दर्द लेकर जीना क्या आसान होता है...क्या उनके आत्मा नहीं कचोटती किसी शाम कि बीवी बच्चे होते...एक परिवार होता...पर उतनी जिम्मेदारियाँ निभाना उसके लिए कहाँ आसान हुआ है। निरवाना के कर्ट कोबेन के जरनल्स की किताब है...उसके पहले पन्ने पर लिखा हुआ है...
डोंट रीड माय डायरी व्हेन आई एम गोन.
ओके, आई एम गोइंग टू वर्क नाव...व्हेन यू वेक अप दिस मॉर्निंग, प्लीज रीड माय डायरी। लुक थ्रू माय थिंग्स, एंड फिगर मी आउट.”

लगता है काश ऐसी कोई डायरी शहरयार लिख के गए होते...

सारे आर्टिस्ट्स इसी फ्रीडम के पीछे पागल रहते हैं...कर्ट की डायरी में भी हर दूसरे पन्ने पर फ़्रीडम की बातें लिखी हैं...उसके लिए पंक रॉक वाज अ वे ऑफ़ फ्रीडम. जिंदगी से बेपनाह मुहब्बत...और एक abstract सच्चाई जो मुझे सारी बुराइयों से बढ़ कर अपील करती है. मुझे ये भी समझ आता है कि उन्हें दुनिया समझ नहीं आती...कागज़ के फूल में तभी तो सिन्हा साहब कहते हैं...तुम्हारी है तुम ही सम्हालो ये दुनिया. 


हाँ मैं जानती हूँ दुनिया मेरे जैसी नहीं है...पर दुनिया ऐसी होती तो क्या बुरा था. 

7 comments:

  1. "उसे पा लिया जिससे प्रेम करते थे. पर ऐसा सबके लिए हो जरूरी तो नहीं" शायद शहरयारजी क साथ भी ऐसा ही रहा हो.

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  2. बात शहरयार की नहीं है उससे उपजे प्रशन की है . कुछ साहित्यकारों -लेखको-महान लोगो के उस सामानांतर संसार की है .जो किताबो ओर उनके आस पास के ओरा से बाहर के "असल जीवन" में है किसी ने एक बार लिखा था कुछ लोग "यश की पेंशन" खाते है .
    तो गोया
    १. शादी के दूसरे दिन आप एक मोहतरमा को लेकर घर आये एक कमरे में बंद हो जाये दो घंटे बाद निकले ओर फिर अपनी उस बीवी से कहे (जिसे आप लव मेरिज करके लाये है )कहे "हम दोनों में कुछ खास रिश्ता है " ये रिश्ता रोज पनपे रोज परवान चढ़े पर सब मुआफ क्यूंकि कुछ साल पहले आपने लिखी एक कविता "भागी हुई लडकिया "(इस सदी के महान समाजवादी कवि).
    २.घर खर्च चलाने के लिए पत्नी काम करे ,घर आकर आपकी रोटी बनाये रोज शाम को होने वाली बैठको में पी जाने वाली शराब में आपके लिए चने भुने ,काजू तले ओर शराब पिए जाने वाले बर्तन धोये क्यूंकि आप सदी के महान लेखक है ओर आपकी बैठक में बहस का विषय है "स्त्री विमर्श ".....ओर ये पत्नी भी लेखक है ,बेहद लोकप्रिय इतनी की उनकी दो पट कथायो पर फिल्मे बन कर हिट हो चुकी है पर घर चलाने ओर बच्चे के लालन पालन की जिम्मेवारी उनके जिम्मे है .ये जिम्मेवारी स्त्री के हिस्से अनिवार्य है ये तय किसने किया है ( इस सदी के महान लेखक )
    ३. आप सुबह उठते ही शराब पिये ,दोपहर में पिये ,रात को पीये चार दिन तक घर न लौटे .कभी नाली में पड़े मिले ,रोज कोई बेहोशी में हालत में आपको घर छोड़े .घर खर्च का जिम्मा परिवार के जिम्मे .पर सब मुआफ क्यूंकि आप" मजाज़" है इस सदी के सबसे बड़े शायर आपको पीने का हक खुदा से मिला है .(यानी "शराब पीना" ओर सिर्फ "शराब ही पीना" में अंतर होता है )
    ये सिर्फ बानगी है . हकीक़त के पन्नो की कुछ झलकिया. सुधा अरोड़ा जी ने "कथा देश" में लगतार कलम चलाया है इस बाबत . मराठी दलित लेखक नाम देव ढसाल जिन्होंने अपनी प्रसिद्ध आत्म कथा में अपने संघर्षो से जिजीविषा रची है . पर उनकी पत्नी उनके पुरुष रूप का एक अलग रिफ्लेक्शन दिखलाती है . ये किसी मेरी क्युरी का समाज हित या विज्ञान के अनुसंधान में डूबे रहकर वक़्त न दे पाना नहीं है ये कोई ओर चीज़ है
    ठीक वैसे ही जैसे गांधी १६ साल की लडकियों के साथ रात को नग्न सोये ओर कहे वे "ब्रहमचर्य के प्रयोग" कर रहे है जब गांधी की उम्र ५० पार है ओर जब गांधी भरी सभा में अपनी पत्नी से दैहिक सम्बन्ध न रखने की घोषणा कर चुके है (ये गांधी का स्वंय लिया हुआ निर्णय है जिसको वे अचानक सार्वजानिक करते है )ओर हम कुछ न कहे क्यूंकि वे गांधी है ओर उन्हें "सौ पुण्य के साथ एक गुनाह "की स्कीम का ऑफर अलाऊ है .

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  3. अनुराग जी...पहले दो किस्सों में यही कहना चाहूंगी कि किसी की पत्नी की मजबूरी नहीं रहती शादी जैसे रिश्ते को निभाना...आप तलाक लेकर अलग रह सकती हैं. साथ रहना एक साझा निर्णय होता है पर अलग होने का निर्णय तो पति पत्नी में से कोई भी एकल और स्वतंत्र रूप से ले सकता है. किसी आम इंसान की जिंदगी की भी तहों में उतरेंगे तो बहुत कुछ ऐसा मिलेगा.

    किसी आर्टिस्ट की जिंदगी बड़ी उलझी और पेचदार होती है...उसपर वाकई हमारे सही गलत के नियम नहीं चलते...मैंने जितना पढ़ा है इससे यही समझा है. मजाज़ को कौन सा गम था जिससे वो पीते थे ये वही बता पाते...अक्सर जिन चीज़ों पर हम एक उचाट निगाह डाल कर निकल सकते हैं किसी कवि का मन उससे इतना आहत हो जाता है कि जीने में तकलीफ होने लगती है.

    दो चीज़ें...एक तो कोई परफेक्ट नहीं होता...हम सबकी कमजोरियां होती हैं तो आर्टिस्ट को ही इस खांचे में क्यूँ डाला जाए कि वो गलतियाँ न करे...या अच्छा इंसान बने.

    दूसरा...अगर हर आर्टिस्ट पर इतने सही-गलत के बंधन हों कि वो कुछ रच ही ना पाए तो समाज में जो बड़ा सा खालीपन आएगा क्या उसे हमारे समाज के परफेक्ट लोग भर सकेंगे? अगर रचने की कीमत है कुछ बिखरे परिवार, कुछ उदास प्रेमिकाएं, कुछ परेशान बीवियां...तो ये कीमत तो चुकानी पड़ेगी. हर इंसान सिर्फ दुनिया में सबको खुश करने के लिए नहीं आता...कुछ लोग वाकई इसलिए होते हैं कि उनसे जुड़े हर व्यक्ति को दुःख हो...ऐसे लोगों का होना भी उतना ही जरूरी है.

    हर वो आर्टिस्ट जिसने यश की पेंशन खायी है के पीछे ऐसे हजारों हैं जो तनहा रहते हुए गरीबी और भुखमरी में मर गए. उनके गुनाहों पर किसी ने कलम भी नहीं चलायी. गरीबी में TRP नहीं होती न.

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  4. अच्छा इंसान होने से कहीं ज्यादा जरूरी है अच्छा लिखना. अच्छा इंसान होने से सिर्फ आपके जान-पहचान के लोगों, आपके दोस्तों का फायदा है...जबकि अच्छा लेखन कालजयी होता है और आपके जाने के बाद भी कई तरह से लोगों को कुछ अच्छा बनने के लिए प्रेरित कर सकता है. हर महान इंसान के जीवन में किसी लेखक के शब्दों का ओज रहा है.

    एक अच्छा इंसान कितनों की जिंदगी बदल सकता है...अपने उदहारण से? बहुत कम...पर एक अच्छी कविता, एक अच्छा लेख अपने लिखे जाने के सदियों बाद तक एक खुशबू लिए जिन्दा रहता है...लोगों को कुछ अच्छा बनने के लिए प्रेरित करता हुआ.

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  5. सार्थकता लिए हुए सटीक प्रस्‍तुति ।

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  6. "बौद्धिक विकृतिया चमत्कारिक होती है ये यथार्थ का बँटवारा इस तरह करती है की विकार स्पष्ट नजर नहीं आता ."

    पूजा ......पहले दोनों किस्सों में ही जब पत्नी ने अलग होना चाहा इन दोनों महाशयों ने हाथ पैर जोड़े ,इमोशनल टूल इस्तेमाल किये फिर भी जब बात बढ़ी तो तो साहित्य ओर समाज के बड़े खम्भों में उन्हें रोकने की कोशिश की. . ये दोनों वे किस्से है जिनमे पुरुष स्त्री विमर्श के पुरोधा है ,अपनी कहानियो -कविताओ में स्त्री के दुःख दर्द पर बाद बड़े बड़े लेख कविताएं लिखते है ?अजीब बात है इंसान दिन रात प्रेम पर लिख रहा है अपनी पत्नी के अलावा दूसरी स्त्री से प्रेम कर रहा है पर अपनी पत्नी से पत्नी के सारी दायित्व पूरे करने की अपेक्षा करता है ओर करवा भी रहा है ,पति होने के सारे सुख भोग रहा है बिना जिम्मेदारी में हिस्सा बटाए. अगर उसकी पत्नी उसकी जिंदगी से बाहर जाना चाहती है ,स्वंत्र होना चाहती है उसे स्वतन्त्र नहीं कर रहा ओर अंत में उसे चरित्रहीन कह रहा है ? ये कैसा कवि है ? मज़लूमो ओर औरतो पर लिखने वाला ?
    ये विरोधाभास तुममे क्रोध नहीं भरता ?दूसरे किस्से में तो फिर भी एक सम्मानीय डिस्टेंस बनाकर वो लेखिका अलग हो गयी . ये दरअसल दोहरे व्यक्तित्व का प्रतीक है कथादेश के पुराने अंको में झांकोगी तो सारी कहानी मिलेगी इसके विषय में
    . मन्नू भंडारी की किताब "यही सच है " भी पढ़ सकती हो .
    ,मै भी चाहता तो औरो की तरह एक सेफ डिस्टेंस बनाकर निकल जाता पर मेरा मानना है विचारो में असहमतिया भी संवाद का ही हिस्सा है . .
    क्या होलीवूड के एक डाइरेक्टर को बलात्कार के आरोप से सिर्फ इसलिए बरी कर दिया जाए की उसने विश्व को अद्भुत सिनेमा दिया है ?
    या किसी एक्टर को को कोई अदालत शराब पीकर फूटपाथ पर लोगो को मारने के बाद इसलिए बरी कर दे क्यूंकि वे एक कलाकार है ,उसने अमर पिक्चरे दे है अमर किरदार दिए है जिससे लाखो लोग इंस्पायर हुए है , लाखो लोगो के जीवन में खुशिया बिखेरी है . तसलीमा नसरीन यही तो कहती थी बंगाल के राइटरो के बारे में जिसके पास भी गयी खाल के नीचे सिर्फ पुरुष निकला ? खुशवंत सिंह जैसे लोग ही ठीक है वे जैसा सोचते है लिख देते है .जैसे जीते है वैसा लिख देते है .
    जिस तरह हड्डी -अस्थि मज्ज्जा की कोई जाति-धर्म नहीं होती उस तरह किसी भी गुण दोष को भी गुण ओर दोषों की तरह से देखा जाता है . किसी महान साइंटिस्ट की अपनी पत्नी के प्रति क्रूरता को सिर्फ इसलिए कम नहीं किया जा सकता के वो महान साइंसटिस्ट है . उए उनके व्यक्तित्व का एक विकृत हिस्सा है जिसे हमें स्वीकार करना होगा .
    वैसे आज से तीन साल पहले इसी विचार पर मैंने कुछ लिखा था शायद तुमने पढ़ा न हो.....
    http://anuragarya.blogspot.in/2009/03/blog-post_29.html




    एक कविता ओर है जो शुभम श्री ने लिखी है

    मुझे पता है
    तुम देरिदा से बात शुरू करोगे

    अचानक वर्जीनिया कौंधेगी दिमाग में
    बर्ट्रेंड रसेल को कोट करते करते

    वात्स्यायन की व्याख्याएँ करोगे
    महिला आरक्षण की बहस से

    मेरी आजादी तक
    दर्जन भर सिगरेटें होंगी राख

    तुम्हारी जाति से घृणा करते हुए भी
    तुमसे मैं प्यार करूँगी

    मुझे पता है
    बराबरी के अधिकार का मतलब
    नौकरी, आरक्षण या सत्ता नहीं है
    बिस्तर पर होना है
    मेरा जीवंत शरीर

    जानती हूँ...

    कुछ अंतरंग पल चाहिए
    'सचमुच आधुनिक' होने की मुहर लगवाने के लिए

    एक 'एलीट' और 'इंटेलेक्चुअल' सेक्स के बाद
    जब मैं सोचूँगी

    मैं आजाद हूँ
    सचमुच आधुनिक भी...
    तब

    मुझे पता है
    तुम एक ही शब्द सोचोगे
    'चरित्रहीन'

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  7. विषय पर हम दोनों स्पेक्ट्रम के दो छोरों की ओर से देख रहे हैं. आपकी सोच और मेरी सोच एकदम जुदा है यहाँ...तो मुझे नहीं लगता हम इस बारे में और कुछ बात कर सकते हैं.

    आप की ही बात से खत्म करती हूँ 'विचारो में असहमतिया भी संवाद का ही हिस्सा है'

    I agree to disagree with you.

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