01 January, 2012

काँपती उँगलियों से खोलना...

बीता हुआ साल कुछ वैसा ही है
जैसे स्टेशन पर भीड़ में खोया हुआ वो एक चेहरा
जो ताजिंदगी याद रहता है 

अनगिनत सालों में 
ये साल भी गुम जाएगा कहीं
सिवाए उस एक शाम के 
तो ए बीते हुए साल
तू सब कुछ रख ले अपने पास
उस एक शाम के बदले

वो शाम कि जिसमें 
बहुत सी बातें थी 
बादलों का रंग था 
मौसम की खुशबू थी 
हवाओं के किस्से भी थे 

वो शाम कि जिसमें
दिल धड़कता था
आँखें तरसती थीं
उँगलियाँ कागज़ पर 
अनजाने 
कोई नाम लिख रहीं थी 
तलवे सुलग उठ्ठे थे 
मन बावरा हो गया था 

पंख उग गए थे
पैरों तले जमीन को
मैं पहुँच गयी थी
उन बांहों के घेरे में

उस एक शाम 
सब छूट गया था पीछे
कि जब उसने 
काँपती उँगलियों से खोली थीं 
मेरे जिस्म की सब गिरहें
और 
मेरी रूह को आज़ाद कर दिया था 

8 comments:

  1. मनोभावों की सुन्दर अभिव्यक्ति की है आपने.
    अनुपम प्रस्तुति के लिए आभार.

    नववर्ष की आपको हार्दिक शुभकामनाएँ.

    समय मिलने पर मेरे ब्लॉग पर आईयेगा.

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  2. खूबसूरत...बेहद खूबसूरत..
    ऐसी शाम जिंदगी भर याद रहती है...

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  3. रूह की आज़ादी की बात पर रूकती कविता... बिना रुके चल ही रही है... विराम के बाद भी!
    सुन्दर!

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  4. कुछ बीत गया, कुछ आना है,
    मिलजुल कर संग निभाना है।

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  5. सुन्दर अभिव्यक्ति का प्रमाण .........

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  6. भावो का अद्भुत संगम्।

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  7. 2011 अभी-अभी तो बिछुड़ा है..

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  8. पद्द और गद्द में तुम्हारे मन की पारदर्शता अचंभित करती है...

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