12 December, 2011

दिल्ली मेरी जान...उफ्फ्फ दिल्ली मेरी जान!

वो कहते हैं तुम्हारे जन्म को इतने साल हो गए, उतने साल हो गए...मगर दिल्ली मेरी जान...मेरे लिए तो तुम जन्मी थी उसी दिन जिस दिन पहली बार मैंने तुम्हारी मिटटी पर पैर रखा था...उसी लम्हे दिल में तुम्हारी नन्ही सी याद का चेहरा उगा था पहली बार...वही चेहरा जो कई सालों तक लौट लौट उगता रहा पार्थसारथी के चाँद में.

तुम मुझमें किसी अंकुर की तरह उगी जिससे मैंने तब से प्यार किया जबसे उसके पहले नन्हे हरियाले पत्तों ने मेरी ओर पहली बार मासूमियत से टुकुर टुकुर देखा...तुम्हारी जड़ें मेरे दिल को अपने गिरफ्त में यूँ लेती गयीं जैसे तुम्हारी सडकें मेरे पांवों को...दूर दूर पेड़ों के बीच जेऐनयु में चलती रही और तुम मेरे मन में किसी फिल्म की तरह दृश्य, रंग, गंध, स्वाद सब मिला कर इकठ्ठा होती गयी.

अब तो तुम्हारा इत्र सा बन गया है, जिसे मैं बस हल्का सा अपनी उँगलियों से गर्दन के पास लगाती हूँ और डूबती सी जाती हूँ...तुमसे इश्क कई जन्मों पुराना लगता है...उतना ही पुराना जितना आरके पुरम की वो बावली है जिसे देख कर मुझे लगा था कि किसी जन्म में मैं यहाँ पक्का अपने महबूब की गोद में सर रखे शामें इकठ्ठा किया करती थी. पत्थर की वो सीढियां जो कितनी गहरी थीं...कितनी ऊँची और बेतरतीब...उनपर नंगे पाँव उतरी थी और लम्हा लम्हा मैं बुत बनती जा रही थी...वो तो मेरे दोस्त थे कि मुझे उस तिलिस्म से खींच लाये वरना मैं वहीँ की हो कर रह जाती.

तुम्हें मैं जिस उम्र में मिली थी तुमसे इश्क न होने की कोई वजह नहीं थी...उस अल्हड लड़की को हर खूबसूरत चीज़ से प्यार था और तुम तो बिछड़े यार की तरह मिली थी मुझसे...बाँहें फैला कर. तुम्हारे साथ पहली बारिश का भीगना था...आसमान की ओर आँखें उठा कर तुम्हारी मिटटी और तुम्हारे आसमान से कहना कि मुझे तुमसे बेपनाह मुहब्बत है.

आईआईएमसी की लाल दीवारें मुहब्बत के रंग में लाल थी...वो बेहद बड़ी इमारत नहीं थी, छोटी सी पर उतनी छोटी कि जैसे वालेट में रखा महबूब का पासपोर्ट साइज़ फोटो...कि जिसे जब ख्वाइश हो निकल कर होठों से लगा लिया और फिर दुनिया की नज़र से छुपा पर वापस जींस की पीछे वाली जेब में, कि जहाँ किसी जेबकतरे का हाथ न पहुँच सके. उफ़ दिल्ली, तुम्हें कैसे सकेरती हूँ कि तुम्हारी कोई तस्वीर भी नहीं है जिसे आँखों से लगा कर सुकून आये.

दिल्ली मेरी जान...तुम मेरी तन्हाइयों का सुकून, मेरी शामों की बेकरारी और मेरी जिंदगी का सबसे खुशनुमा पन्ना हो...तुमसे मुझे दिल-ओ-जान से मुहब्बत है और तुम्हें क्या बताऊँ कि कैसी तड़प है तुम्हारी बांहों में फिर से लौट आने की.

दिल्ली तेरी गलियों का, वो इश्क़ याद आता है...
पुराने फोल्डर्स में देखती हूँ तो एक शाम का कतरा मिला है...पार्थसारथी का...अपने लिए सहेज कर यहाँ लगा रही हूँ...गौर से अगर देखोगी तो इस चेहरे को अपने इश्क में डूबा हुआ पाओगी...और हालाँकि ये लड़की बहुत खूबसूरत नहीं है...पर इश्क करते हुए लोग बड़े मासूम और भले से लगते हैं.

दिल्ली मेरी जान...उफ्फ्फ दिल्ली मेरी जान!

5 comments:

  1. जैसे किसी बड़े पेड़ की जड़ें बहुत दूर तक फ़ैल जाती हैं| इन्ही जड़ों में कुछ पौधे फलते हैं, जिन्हें लोग कभी कभी वहाँ से उखाड़ के कहीं और लगा देते हैं, पर उन पौधों में बड़े पेड़ का अर्क मुकम्मल रह जाता है| कुछ ऐसे ही बीती है अपनी जिंदगी भी, जिंदगी के सबसे अहम दिन, दिल्ली के पास नॉएडा में| अब कहीं भी रहूँ दिल्ली मुझमे बाकी रहेगी हमेशा|
    बहुत पहले दूरदर्शन पर एक सीरियल आता था, कविता कृष्णमूर्ति का गाया उसका टाइटिल गीत याद आ गया
    "मैं दिल्ली हूँ, मैं दिल्ली हूँ, मैं हिंदुस्तान का दिल हूँ"...
    और दिल्ली है दिलवालों की...

    ReplyDelete
  2. :):)
    हैदराबाद और बसवकल्याण से मेरा लगाव कुछ ऐसा ही है...

    ReplyDelete
  3. १०० साल का बूढ़ा दिल्ली अब भी आप लोगों के लुटाये प्यार के कारण जवाँ है..

    ReplyDelete
  4. bahut hi khooburat dilli, jo apke shabdon ko padhkar aur jawan ho uthi hai.... ek baar fir se...

    mam, maine aapko fb par msg kiya hai, kuch sikhna chahta hoon, plzz response me..

    ReplyDelete
  5. अब तो इत्र मलने से भी नहीं आती इश्क की खुशबू,
    वो दिन हवा हुए जब पसीना गुलाब था...
    किसी की जान होना भी एक किरदार निभाने जैसा होता है।
    दिल्ली तो बस जान है, कल तुम्हारी,आज मेरी परसों किसी और की...
    शब्द गढ़ने की छेनी कहां से लाई तुम...कहां से धरती हो धार...ईर्ष्या होती है मुझे। और एक किरदार की तरह, पढ़ता जाता हूं मैं...

    ReplyDelete

Related posts

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...