06 December, 2011

लौट आने को बस सादा कागज़ होता है...कभी कभी वो भी नहीं

स्ट्रगलिंग राइटर को देखा है? किसी शहर में उसके लिए कभी कोई जगह नहीं रहती...लेखक स्वाभाव से आवारा होता है इसलिए उसे हमेशा लौट आने के लिए एक जगह चाहिए होती है, एक कोना, एक कमरा, एक बिस्तर जिसे वो घर कह सके. अगर उसके पास लौट आने को आसरा नहीं होगा तो उसकी यात्राएं अनंत तक फैलती जायेंगी और एक वक़्त ऐसा भी आएगा कि जब उसके पास लौट आने की इच्छा ही नहीं बची होगी.

राइटर मकान मालिक से इल्तिजायें करता है, आंटी प्लीज थोड़ी सी जगह चाहिए रहने के लिए...बरसाती में रह लूँगा...आपको कभी कोई तकलीफ नहीं होगी...न सही ये बरामदा ही घेर कर वो कोने वाली जगह मुझे दे दो...एक गद्दा और कुछ किताबें...बस इससे ज्यादा कुछ नहीं है मेरे पास. प्लीज आंटी...घर पर आपकी भी हेल्प कर दिया करूँगा...प्लीज आंटी प्लीज...थोड़ी सी तो जगह की बात है, आप इतने बड़े घर में अकेले बोर भी हो जायेंगी...मुझे गिटार बजाना आता है, बहुत अच्छे से...आपकी पसंद के गाने बजाऊंगा. मदर प्रोमिस.

रिश्ते भी कभी कभी ऐसे हो जाते हैं...कहने में दर्द होता है मगर हम जानते हैं कि रिश्ते में हाशिया भर को ही मिले, हमें जीने के लिए चाहिए होता है. आजादी की कीमत तभी है जब कहीं न कहीं, छोटा सा ही सही, बंधन हो. There is nothing like absolute freedom. पूरी तरह से बंधनमुक्त होने पर हम अपनी आजादी तक एन्जॉय नहीं कर पाते...मन जो होता है न, वही मांगता है जो उसे नहीं मिलता...तो जब आपको बंधन नहीं मिलते आप बंधन की ओर भागते हो. कहीं कोई एक हो, जो आपको बाँध के रख सके...अपनी मर्जी से मोड़ सके, तोड़ सके...दुःख पहुंचा सके.

हम लाख खुद को तटस्थ करना चाहें, मन का एक कोना हमेशा छीजता रहता है...मन तब तक खुला है जब तक कोई कहे कि तुम्हारी सीमा आसमान है...किसी के कहे बिना इस कथ्य का होना भी नहीं होता...वैसा ही है जैसे हनुमान जी के पास बहुत सी शक्तियां थी, पर जब तक उनको कोई याद नहीं दिलाता उन्हें पता ही नहीं था कि वो क्या क्या कर सकते हैं.

बड़े साइंटिस्ट लोग रिसर्च कर के कह रहे हैं कि हमें जो दिखता है  इसलिए नहीं कि वो है...उसका होना इसलिए है की उसे देखने वाला कोई है...उस तरह से सच तो फिर कुछ भी नहीं रहा...उस तरह से तो फिर जो मैंने देखा वो सच...तो सबका सच अलग अलग होगा...और होता भी तो है. उफ्फ्फ!

हाशिया...गुम हो जाएगा ये भी धीरे धीरे...कागज़ ख़त्म हो रहा है, कलमें और दवात भी...और इसी के साथ एक पूरी प्रोसेस लुप्त हो रही है. लिखना सिर्फ शब्दों को सकेर देना नहीं है...लिखने में आता है जबान पे घुलता सियाही का स्वाद...आँखों से शब्दों को पीना...और सफ़ेद कागज़ का आमंत्रण...कुछ लिखने का, कुछ गढ़ने का...कुछ बनने का. एक ऐसी दुनिया रचने का जिसमें सब कुछ लेखक ही है पर एक परदे के पीछे. एक नाम लिखते ही किरदार जन्म ले लेता है और उसके साथ ही जन्मता है एक पूरा संसार...लेखक इसलिए तो भगवान् से कम नहीं होता.

राइटर के पास लौट आने को बस सादा कागज़ होता है...कभी कभी वो भी नहीं क्यूंकि उसमें तुम्हारा चेहरा उग आता है...तुम...तुम...तुम...जिस दिन मैं इस 'तुम' की परिभाषा लिख लूंगी, उस दिन मेरी कहानी पूरी हो जायेगी.

ओह! मेरी उँगलियाँ ठंढ से अकड़ रही हैं, अभी तो शुरूआती दिसंबर है...पूरा जाड़ा आना बाकी है. तुम्हारे पास लाइटर है न, जरा मेरी उँगलियाँ सेक लेने दो...एक आखिरी चिट्ठी लिखनी है तुम्हें. 

4 comments:

  1. कभी पाबंदियों से छुट के भी दम घुटने लगता है...

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  2. कम्प्यूटर पर एक सफेद खाली स्क्रीन, मन में विचारों का बवंडर, घर में एक खाली कमरा, गूँजती शान्ति, बस और क्या चाहूँ मैं?

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  3. writer.....accha laga padhkar kuch likh pane ki condition me nahi hu abhi...thodi normal se mood me hu aur mujhe lagta hai me tabhi kuch comment de sakti hu jab khush hu ya dukhi...abhi bad khoob sara padhne ke mood me hu ....aai hu islie pad chinha chor kar ja rahi hu....abhi aapki ek aur post padhungi jo nahi padhi....:)

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  4. दिसम्बर में दिसम्बर का जिक्र यूं हुआ।
    हमें लगा कि सारा साल दिसम्बर हुआ॥

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