31 October, 2011

रा.वन (RA.ONE) एक बार देखने लायक फिल्म है

इस शनिवार मैंने रा.वन देखी. कुछ कारणों से दिन का शो नहीं जा पाए तो लेट नाईट नौ से बारह का थ्री डी शो देखने गए...कुछ दोस्तों के साथ. बंगलौर में फेम शंकरनाग मुझे खास तौर से पसंद है क्यूंकि इसमें बहुत ही बड़ा पर्दा है. थ्री डी फिल्म के चश्मे इस बार बाकी सभी थ्री डी फिल्मों से बेहतर मिले और पहनने में बिलकुल आरामदायक थे. 

फिल्म को काफी नेगेटिव रिव्यू मिले हैं...जाने के पहले कुछ मित्रों ने भी नहीं देखने की सलाह दी...मगर हमने ख़राब से ख़राब फिल्म थियेटर में देखी है, फिल्म देखना हम अपना फ़र्ज़ समझते हैं. थोड़ी सी भी गुंजाईश लगती है तो हम जरूर जाते हैं. मुझे लगा कि इस फिल्म को लेकर मेरा नजरिया यहाँ जरूरी है. 

पहले फिल्म का नकारात्मक पक्ष, क्यूंकि मेरे हिसाब से काफी कम है. रा.वन का सबसे बड़ा विरोधाभास है इसके दर्शक वर्ग का चुनाव. फिल्म बच्चों के लिए बनाई गयी है...मगर कई जगह बेहद अश्लील है. हिंदी फिल्मों में आजकल द्विअर्थी डायलोग आम बन गए हैं पर चूँकि ये फिल्म बच्चों पर केन्द्रित है ऐसे सीन या डायलोग इस फिल्म में नहीं होने चाहिए थे. किसी भी परिवार को फिल्म देखने में आपत्ति हो सकती है. कुंजम की जगह कंडोम का प्रयोग या फिर शारीरिक हावभाव जबरदस्ती ठूंसे गए लगते हैं. फिल्म अपने मकसद में एक छोटी भूल से चूक जाती है. अगर आप इसे इग्नोर कर सकते हैं तो आगे पढ़ें...और आगे फिल्म भी देखें. 

दूसरा नकारात्मक पक्ष paairecy या फिर नक़ल कह सकते हैं...जैसे रा.वन का हार्ट सीधे आयरन मैन फिल्म से उड़ाया गया है. चंद छोटे टुकड़ों में और भी चीज़ें इधर उधर से ली गयी हैं...मैं इसे भी इग्नोर करने के मूड में हूँ...क्यूंकि कमसे कम कहानी का आइडिया असली है.

फिल्म की सबसे अच्छी चीज लगी इसका मूल कांसेप्ट या अवधारणा जिसके इर्द गिर्द कहानी घूमती है- कि सच की हमेशा जीत होती है और इस चीज़ को ऐसे दिखाना कि बीइंग गुड इज आल्सो 'कूल'. हमारे आज के बच्चे वाकई फिल्म के प्रतीक की तरह हैं, उन्हें लगता है कि अच्छा होने से क्या मिलता है. बुरे लोग ज्यादा सफल होते हैं. ऐसे में ऐसे 'अच्छे' के मूल विषय पर फिल्म बनाना हिम्मत की बात है और इस लिए मैं शाहरुख़ खान को बधाई देती हूँ कि उसने ऐसा विषय चुना. ऐसे में लगता है कि काश फिल्म में जबरदस्ती के अश्लील डाइलोग नहीं होते तो फिल्म बहुत ही ज्यादा बेहतरीन होती. 

रा.वन और भी कई जगह अच्छी लगी है. जैसे स्मोकिंग के बारे में स्क्रिप्ट में मिले हुए डायलोग. एक जगह जब छत पर जी.वन और प्रतीक बातें कर रहे हैं तो जी.वन पहली बार सिगरेट पीता है...और प्रतीक से कहता है 'तुम्हें पता है हर साल २० प्रतिशत(या ऐसा ही कुछ, ठीक से याद नहीं है मुझे) लोग सिगरेट हमेशा के लिए छोड़ देते हैं' तो इसपर प्रतीक पूछता है कि कैसे तो जी.वन जवाब देता है 'कि वो लोग मर जाते हैं'. स्मोकिंग के लिए सिर्फ एक लाइन की खानापूर्ति से बढ़ कर इस फिल्म में ऐसे एक दो और जगह पर बताया गया है कि सिगरेट अच्छी नहीं है. 

फिल्म हिंदी में बनी पहली थ्री डी फिल्म है, सिर्फ इसी एक कारण के लिए फिल्म देखने जाना जरूरी है. हिंदी को जब तक नयी तकनीक, नए दर्शक नहीं मिलेंगे पुराने लोगों के साथ ही भाषा ख़त्म हो जायेगी. आपने आखिरी कौन सी हिंदी फिल्म देखी थी जो आपके बच्चों को अच्छी लगी थी? इस फिल्म को देखने का सबसे अच्छा कारण है इसके थ्री डी इफेक्ट. आजतक किसी हिंदी फिल्म में इस तरह के इफेक्ट नहीं देखने को मिले हैं. लगभग उतने ही अच्छे शोट्स हैं जैसे हॉलीवुड/अंग्रेजी फिल्मों में होते हैं. हिंदी फिल्म में ऐसी तकनीकी उत्कृष्टता देख कर वाकई गर्व महसूस होता है. मुझे बेहद अच्छा लगा इसका तकनीकी पक्ष. चाहे फाईट सीन हों या गेम का थ्री डी माहौल, फिल्म हर जगह खरी उतरती है. खास तौर से विक्टोरिया टर्मिनस के टूटने का शोट भव्य है. सिनेमाटोग्राफी बेहद अच्छी है, लन्दन की खूबसूरती हो या डांस के स्टेप्स...सब कुछ एकदम रियल लगता है. 

हमारे बच्चे हिंदी फिल्में नहीं देखते...हिंदी फिल्में इस लायक होती ही नहीं कि बच्चे देख सकें. रा.वन में भी कुछ गलतियाँ है जिसके कारण मैं इसे पूरी तरह सही नहीं कहूँगी...पर ये कमसे कम एक शुरुआत तो है. इसे पूरी तरह ख़ारिज नहीं किया जा सकता. 

किसी चीज़ में बुराइयाँ देखना बहुत आसान है...पर अच्छाइयों पर भी थोड़ा ध्यान दिया जाए...फिल्म यही कहने की कोशिश करती है. एक बार फिल्म को खुले दिमाग से मौका दीजिये...रा.वन इतनी बुरी नहीं है कि आप देख न सकें. फिल्म में एक अच्छी कहानी है, अच्छे स्टार हैं जो अभिनय करते हैं. चाहे हमारा सुपरहीरो जी.वन हो या प्रतीक. एक आखिरी बात और...१०० करोड़ रुपये लगा कर हिंदी की सबसे महँगी फिल्म बनी थी 'ब्लू' अगर आपने देखी है तो आपको ये १५० करोड़ रुपये बिलकुल सही जगह खर्च किये हुए लगेंगे. 

मेरी तरफ से फिल्म को ४ स्टार(पांच में से)...एक अच्छी मसाला, टाईमपास, सुपर एफ्फेक्ट्स वाली सुपरहीरो वाली बोलीवुड फिल्म. 

फुटनोट: इससे पहले कि कोई पूछ ले...शाहरुख़ खान ने इस रिव्यू को लिखने के लिए मुझे कोई पैसे नहीं दिए हैं 

27 October, 2011

वो सारे शब्द तुम्हारे हैं

लिखना,
कागजों के ख़त्म हो जाने तक
आत्मा के उजालों को
जिस्म की सियाही में डुबो कर

चुप आँखों को ज़बान देना
मौन को कलम के चलने का शोर
लड़ना शब्दों से

लिखना अतीत के लिए
ताकि वो याद रख सके
कलम से घायल होने का स्वाद
.
वो सारे शब्द तुम्हारे हैं
जो युद्ध में शहीद नहीं हुए
तुम्हें उगानी हैं मुस्कानें

तुम्हें जिन्दा रखना है प्रेम
मौत की वादियों तक
मुट्ठी में भिंचे प्रेमपत्र की तरह

लिखना,
रद्दी कागजों पर
उलटे लिफाफों पर
नर्म ख्वाबों पर

लिखना...क्यूंकि
लिखना और जीना
अलग नहीं हैं.

24 October, 2011

लिखना...

इधर कुछ दिनों से फाउन्टेन पेन से लिख रही हूँ. कहानियां, डायरी, चिट्ठियां...कुछ से कुछ, हर दिन लगभग. आज सुबह अख़बार पढ़ने के बाद कुछ लिखने बैठी थी. आजकल एक सवाल अक्सर परेशां कर रहा था मुझे...सवाल ये कि लिख कर भी चैन क्यूँकर नहीं मिलता. मेरे लिए लिखना हमेशा से अपने तनाव, दर्द, घुटन या किसी भी नकारात्मक विचार से मुक्ति पाना रहा है. इधर जब यंत्रणा हद से बढ़ जाती तो कोई रास्ता ही नहीं मिलता. शांति नहीं मिल रही थी...मन में असंख्य लहरें उठ रही थीं और समंदर पर सर पटक के जान दे देती थीं.

आज सुबह एक अद्भुत चीज़ हुयी. उठी तो मन बहुत व्यथित था, कारण ज्ञात नहीं, शायद कोई बुरा सपना देखा होगा या ऐसा ही कुछ...मैंने लिखना शुरू किया, मन में कुछ खास था नहीं. जो था लिखती गयी...जब तीसरे पन्ने पर पहुंची तो अचानक इस बात पर ध्यान गया कि मेरी सांसें धीमी चल रहीं थी और मन एकदम शांत हो गया था. पहले जैसा उद्वेलन नहीं था...खिड़की से सूरज की किरनें अन्दर गिर रहीं थी और सब कुछ अच्छा था. एक लम्हा जैसे जब ठहर गया था. ये वैसा ही था जैसे बहुत पहले हुआ करता था...लिखने पर मन का शांत हो जाना. 

कीबोर्ड पर लिखना और फाउन्टेन पेन से लिखने का अंतर तब समझ आया...सोच रही हूँ आपसे भी बाँट लूँ. कीबोर्ड पर लिखने की गति बेहद तेज़ होती है...लगभग सोचने की गति इतनी ही या उससे थोड़ी कम. मैं यहाँ अपनी बात कर रही हूँ...जितनी देर में एक वाक्य या एक सोच उभरती है उसी गति से हम उसे लिख पाते हैं. तो अगर मन अशांत है तो कई विचार आयेंगे और आप लगभग उन सभी विचारों को लिख पायेंगे बिना मनन किये. ये वैसे ही होता है जैसे बिना सोचे बोलना...जैसा कि मैं अक्सर करती हूँ...ठेठ हिंदी में कहें तो इसे 'जो मन में आये बकना'. ब्लॉग लिखना मेरे लिए अक्सर ऐसा ही है. अक्सर पोस्ट्स यूँ ही लिखती हूँ...और पिछले कुछ सालों से कागज़ पर लिखना बहुत कम हो गया है. मैं यहाँ निजी लेखन की बात कर रही हूँ...ब्लॉग होने के बाद से डायरी में लिखना, या कहीं लिखना कम हो गया था. बंद नहीं पर नाम मात्र को ही था. 

कुछ दिन पहले एक बेहद खूबसूरत फाउन्टेन पेन ख़रीदा था. कुछ दिन बाद कैटरिज मिल गए जिससे कलम में इंक भरने की समस्या न निदान हो गया. ये पेन बहुत ही अच्छा लिखता है. मैंने कई बार पेन से लिखने की कोशिश भी की थी पर कोई पेन ऐसा मिला ही नहीं था जिससे लिखने में मज़ा आये. पेन के बाद दो तीन अच्छी कॉपी भी खरीदी...हालाँकि घर में अनगिन कापियों की भरमार है पर मेरी आदत है नया कुछ लिखना शुरू करुँगी तो नयी कॉपी में करुँगी..पुरानी में फालतू काम किया करती हूँ. 

पेन अच्छा आया तो हर कुछ दिन पर लिखना भी शुरू हुआ...चिट्ठियां लिखी, कहानियां लिखी और कुछ बिना प्रारूप के भी लिखा. फाउन्टेन पेन से लिखना एकाग्र करता है. पूरे मन से एक एक शब्द सोचते हुए लिखना क्यूंकि लिखे हुए को काटना पसंद नहीं है तो एक बार में एक पूरा वाक्य लिखा जाने तक कुछ और नहीं सोचना...फिर कलम के चलने में अपना सौंदर्य होता है. कुशल तैराक सी कलम की निब सफ़ेद कागज़ पर फिसलती जाती है...और मैं कुछ खोयी सी कभी उसकी खूबसूरती देखती कभी एक शब्द पर अपना ध्यान टिकाती...फाउन्टेन पेन धीमा लिखता है, जेल पेन या बॉल पेन के मुकाबले. तो हर शब्द लिखने के साथ मन रमता जाता है...कभी लिखे हुए के झुकाव/कोण को देखती कभी पूरे पन्ने पर बिखर कर भी सिमटते अपने वजूद को...हर वाक्य जैसे सबूत होता जाता है कुछ होने का. लिखने के बाद कम्प्यूटर के जैसा डिलीट बटन नहों होता उसमें इसलिए गलतियाँ करने की गुंजाईश कम करती हूँ. 
कागज़ पर निब वाली कलम से लिखना यानी पूरे एकाग्रचित्त होकर किसी ख्याल को उतारना...ऐसा करना सुकून देता है...सब शांत होता जाता है...अंग्रेजी में एक शब्द है - Catharsis मन के शब्दों को उल्था करना जैसा कुछ होता है. लिखना फिर से मेरे लिए खूबसूरत और दिलकश हो गया है. 

आपको यकीन नहीं होता? कुछ दिन फाउन्टेन पेन से लिख कर देखिये...कुछ खास खोएंगे नहीं ऐसा कर के. दोस्त आपके भी होंगे, चिट्ठियां लिखिए. 

आपके शहर में लाल डिब्बा बचा है  या नहीं?

19 October, 2011

खुराफातें

कल  कुणाल कलकत्ता से वापस आ रहा था, चार दिन के लिए ऑफिस का काम था. कह के तो सिर्फ दो दिन के लिए गया था, पर जैसा की अक्सर होता है, काम थोड़ा लम्बा खिंच गया और रविवार की रात की जगह मंगल की रात को वापस आ रहा था.

मैंने कार वैसे तो पिछले साल जनवरी में सीखी थी, पर ठीक से चलाना इस साल शुरू किया. अक्सर कार से ही ऑफिस जा रही हूँ. इसके पीछे दो कारण रहे हैं, एक तो मेरा ऑफिस १० किलोमीटर से दूर जाने वाली जगह हो जा रहा है, और दूसरा स्पोंडीलैटिस का दर्द जो बाइक चलाने से उभर आता है. बंगलोर की सडकें बड़ी अजीब हैं...ये नहीं की पूरी ख़राब है, एकदम अच्छी सड़क के बीचो बीच गड्ढा हो सकता है. ऐसा गड्ढा किसी भी दिन उग आता है सड़क में. तो आपकी जानी पहचानी सड़क भी है तो भी आप निश्चिंत हो कर बाइक तो चला ही नहीं सकते हैं. अब मैं कार अच्छे से चला लेती हूँ. हालाँकि ये सर्टिफिकेट खुद को मैंने ही दिया है...और कोई  मेरे साथ बैठने को तैयार ही नहीं होता. कुणाल के साथ जब भी कहीं जाती हूँ तो वही ड्राइव करता है. उसका कहना है कि हफ्ते भर ऑफिस की बहुत परेशानी रहती है उसे, फिर वीकेंड पर टेंशन नहीं ले सकता है. मैं कभी देर रात चलाती भी हूँ तो सारे वक़्त टेंशन में रहता है. 

वर्तमान में लौटते हैं...सवाल था एअरपोर्ट जाने का...वैसे मेरे ममेरे भाई भी इसी शहर में रहते हैं तो पहले सोचा था उनके साथ चली जाउंगी. फिर पता चला उन्हें ऑफिस में बहुत काम है...और कुणाल की फ्लाईट ८ बजे पहुँच रही थी. इस समय ट्रैफिक भी इतना रहता है कि जाने में कम से कम दो घंटे लगते. आने के पहले कुणाल से पूछा था की क्या करूँ, बस से आ जाऊं तो उसने मना कर दिया था. बंगलौर में एअरपोर्ट जाने के लिए अच्छी वोल्वो बसें चलती हैं, जिनसे जाना सुविधाजनक है. अब जैसे ही कुणाल ने फ्लाईट बोर्ड की हमारा मन डगमग होने लगा कि जाना तो है. पहले तो सब्जी वगैरह बनाने की तैयारी कर रही थी, दूध फाड़ के पनीर निकाल लिया था और उसे  टांग कर छोड़ दिया था. ताज़े पनीर से सब्जी में बहुत अच्छा स्वाद आता है. 

अब मैं दुविधा में थी...या तो खाना बना सकती थी क्यूंकि पता था कुणाल और साकिब(उसका टीममेट) ने सुबह से कुछ ढंग का खाया नहीं था...तो एकदम भूखे आ रहे थे...या फिर मैं अकेले एअरपोर्ट जा सकती थी...जो कि कुणाल ने खास तौर से मना किया था. अब अगर आप मुझे जरा भी जानते हैं तो समझ गए होंगे की मैंने क्या किया होगा. रॉकस्टार के गाने सीडी पर बर्न किये और जो कपड़े सामने मिले एक मिनट में तैयार हो गयी...साथ में हैरी पोटर की किताब भी...की अगर इंतजार करना पड़े तो बोर न होऊं. 

मैंने कभी इतनी लम्बी दूर तक गाड़ी नहीं चलाई थी...और तो और हाईवे पर सबके साथ होने पर भी नहीं चलाई थी...एअरपोर्ट नैशनल हाईवे नंबर सात से होते हुए जाना होता है. इस रास्ते पर जाने का कई बार मेरा दिल किया है...पर हमने खुद को समझा कर कहानी लिखने में संतोष कर लिया था. खैर...इतना किन्तु परन्तु हम करते तो इस दर्जे के मूडी थोड़े न कहलाते. 

रास्ते में बहुत ट्रैफिक था...पर गाने सुनते हुए कुछ खास महसूस नहीं हुआ. रोज की आदत भी है सुबह ऑफिस जाने की. मज़ेदार बात ये हुयी की आजकल मेट्रो के लिए या फ़्लाइओवेर बनाने के लिए सड़कें खुदी हुयी हैं. पहले जब भी इस रास्ते पर गयी हूँ एकदम अच्छी सड़कें हैं. रेस कोर्स रोड तक तो सही थी, गोल्फ ग्राउंड भी आया था, उसके बाद विंडसर मैनर का ब्रिज भी आया था...आगे एक फ़्लाइओवेर आया, यहाँ मैं पूरा कंफ्यूज थी कि मैं कोई गलत रास्ता लेकर आउटर रिंग रोड पर आ गयी हूँ. रास्ता इतना ख़राब मैंने कभी नहीं देखा था इधर. 

अब चिंता होने लगी...इतने ट्रैफिक में अगर गलत रस्ते पर आ गयी हूँ तो वापस जाने में देर हो जाएगी और कुणाल की फ्लाईट लैंड कर जायेगी...तब क्या कहूँगी कि मैं कहीं खोयी हुयी हूँ. फ़्लाइओवर पर ही गाड़ी रोकी और बाहर निकल कर पीछे वाली कार वाले से पूछा 'ये एयरपोर्ट रोड तो नहीं है न?' पूरा यकीन था कि बोलेगा तुम कहीं टिम्बकटू में हो...पर उसने कहा कि ये एयरपोर्ट रोड ही है. जान में जान आई. 

उसके बाद अच्छा लगा चलाने में...डर तो खैर एकदम नहीं लगा. ७० के आसपास चलायी...गड़बड़ बस ये हुयी कि कभी पांचवे गियर में चलने की नौबत ही नहीं आई शहर में तो मुझे लगा था कि वो गियर ८० के बाद लगाते हैं. आकाश को फोन भी किया पूछने के लिए तो उसने उठाया नहीं. खैर...मैं दो घंटे में पहुँच गयी थी एअरपोर्ट. आराम से वहां काटी रोल खाया और मिल्कशेक पिया. 

कुणाल जब लैंड किया तो मैंने कहा की मैं एअरपोर्ट में हूँ. एकदम दुखी होके बोलता है 'अरे यार!'. और फिर जब बाहर आया तो मैंने कहा ...कुणाल वाक्य पूरा करो...मैं एअरपोर्ट... और उसने कहा कार से आई हूँ. मैंने कहा हाँ...अब तो बस...उसकी शकल, क्या कहें...बाकी लोगों के सामने डांटा भी नहीं. बस बोला की ये गलत बात है यार....ऐसे भागा मत करो. 

बस...अच्छी रही मेरी लौंग ड्राइव...और अब मैं उस झील किनारे जाउंगी किसी दिन. जब जाउंगी फिर एक कहानी बनेगी....देखते हैं कब आता है वो दिन.

13 October, 2011

किस. तरह. छीनेगा. मुझसे. ये. जहाँ. तुम्हें.

बुझती शाम, टीले पर तनहा चाँद का इंतज़ार कर रहा हूँ. कहीं से खबर आई है की मौत का दिन मुक़र्रर हुआ है कल सुबह. जिंदगी की एक आखिरी शाम है, वैसी ही तो है तुम्हारे जाने के पहले वाली शाम जैसी. चाँद उस दिन जैसा खूबसूरत कब निकला फिर. दिल की जगह बड़ी खाली सी जगह है...तुम्हारी और तुम्हारी यादों की सारी जगह खाली है. जैसे एक वृत्त है और उसकी परिधि से घुलता जा रहा है जिस्म...हौले हौले वृत्त का आकर बढ़ता जा रहा है. 

ख़ामोशी में एक गीत बजता है और ज़ख्म में टाँके लगने लगते हैं...आवाज़ का एक दरिया है जो खालीपन में उतरने लगता है और समंदर भरने लगता है. वही सदियों पुराने पत्थर हैं और तुम्हारी गोद में सर रख कर लेटा हुआ हूँ, तुम माथे पर हाथ फिर रही हो, बीच बीच में मद्धम थपकियाँ भी दे देती हो...चांदनी आँखों में चुभ रही है, तुम्हारा चेहरा ठीक से नहीं दिख पाता है...तुमने जूड़े से पिन निकाला है और चाँद का पर्दा कर दिया है...तुम्हारे बालों में ये कौन सी खुशबू बसती है...तुम पास होती हो तो सब शांत होता जाता है. मन का गहरा समंदर भी हिलोर नहीं मारता, चुप किनारों पर आता है और वापस लौट जाता है. 

ऐसे शांति में मर जाना कितना सुकूनदेह होगा...तुम फरिश्तों के देश से आई हो क्या...तो फिर तुम्हारे आंसुओं में कौन सी दुआ होती है कि ज़ख्म भर जाते हैं...तुम वोही लड़की हो न कहानियों वाली की जिसके आंसू में अमृत होता है...मरने वाले लौट आते हैं. तुम मेरे माथे पर अपने होठ रखती हो तो सारी चिंता ख़त्म हो जाती है...मेरी आँखों को चूम लो तो शायद ये फिर कभी जिंदगी में न रोयें...जिंदगी आज भर की ही है...जिंदगी भर मेरे पास रुक जाओगी क्या...तुम हो...बस इतना काफी होगा. 

मेरी खुशियों की किताब खो गयी है. तुम्हारे जाने के बाद जितनी किताबें पढ़ी सबमें बहुत दर्द था...मिलते मिलते लोग बिछड़ जाते थे...कभी नहीं मिलते थे. तुम्हारे जाने के बाद दुनिया में गरीबी थी, फाके थे, भुखमरी थी, दीवारों में ख़त्म होती सड़कें थी...चुप रोती आँखें थीं. तुम थी तो मेरी उंचाई आसमान थी...तुम्हारी आँखों में पनाह मांगता हूँ...मेरी जान, ये दुनिया तुम बिन मेरी जान ले लेगी. 




09 October, 2011

जो लफ़्ज़ों में नहीं बंधता


जितना छोटा हो सकता था, उतना छोटा सा लम्हा है
अगर गौर से देखो समय के इस छोटे से टुकड़े से पूरी दुनिया की स्थिरता(बैलेंस समझते हैं न आप, वही) भंग हो सकती थी.
ज्वालामुखी फट सकते थे, ऊपर आसमान में राख उछलती और एक पूरा शहर नेस्तनाबूद हो जाता. ये पृष्ठभूमि में कोई तो शहर है जिसे आप नहीं जानते. राख में हम ऐसे ही अमूर्त हो जाते, सदियों के लिए...तुम्हारी बाहों में मैं, हवा में उड़ती हुयी...आजकल पाँव जमीं पर नहीं पड़ते मेरे गुनगुनाते हुए. 

हो ये भी सकता था की सूनामी लहरें उठती और इतने ऊँचे छत से भी हमें बहा ले जाती, फिर कहीं नहीं लौट के आने के लिए...या फिर भूकंप आता, ये जो हलकी दरार पड़ रही है और चौड़ी हो जाती और हम किसी हलके गुलाबी पंख की तरह हवा में गिरते, गुरुत्वाकर्षण का हमपर पूरा असर नहीं होता. 

इस एक लम्हे में दुनिया ख़त्म हो सकती थी...पर हमें परवाह नहीं...हमने इस लम्हे में जिंदगी जी ली है. हमने जितना छोटा सा हो सकता है, लम्हा...हमने इश्क किया है.

picture courtesy: Deviantart

01 October, 2011

क्या कहते हो दोस्त, कुछ उम्मीद बाकी है क्या?

मंदिर का गर्भ-गृह है...मैं एक चुप दिए की लौ की तलाश में बहुत अँधेरे से आई हूँ, उम्मीद की एक नासमझ चिंगारी लिए. कैसा लगे कि अन्दर देवता की मूरत नहीं हो और उजास की आखिरी उम्मीद भी बुझ जाए. वाकई जिसे मंदिर समझा था, सुबह की धूप में कसाईघर निकले और जिस जमीन पर गंगाजल से पवित्र होने के लिए आये थे वहां रक्त से लाल फर्श दिखे. पैर जल्दी से उठाएं भी तो रखने की कहीं जगह न हो. जैसे एक सफ़ेद मकबरे(जिसे प्यार का सबूत कहते हैं लोग) के संगमरमरी फर्श पर भरी दुपहरी का हुस्न नापने निकले लोग पाँव जलने से बचने के लिए जल्दी जल्दी कदम रखते रहते हैं फिर भी पाँव झुलस ही जाते हैं. 

मैं सारी रात सो नहीं पायी और उलझे हुए ख्यालों में अपनी पसंद का धागा अलगाने की कोशिश करती रही. देखती हूँ कि मेरी आँखें कांच की हो गयी हैं, जैसे किसी अजायबघर में किसी लुप्त हुयी प्रजाति की खाल में भूसा भर कर रख दिया गया हो. कैसा लगे कि आखिर पूरी जिंदगी जिस मन और आत्मा के होने का सबूत लिए कागज़ काले करते रहे, मौत के कुछ पहले बता दिया जाए कि आत्मा कुछ नहीं होती...अगर कुछ महत्वपूर्ण है तो बस ये तुम्हारा शरीर, कि जिसकी खाल उतारकर दुनिया तुम्हारे होने को हमेशा के लिए नेस्तनाबूद कर देगी. कांच की आँखों में तुम्हारा अक्स बेहद खूबसूरत दिखता है, और तुम इस ख्याल पर खुश हो लोगे. एक पूरी जिंदगी जीने से सिर्फ इसलिए रोक देना कहाँ का न्याय है कि तुम्हें मेरा शरीर चाहिए...ना ना, मांस भी नहीं कि जिसे खा के तुम्हारी क्षुधा तृप्त हो सके(तुम कितने सदियों के भूखे हो ओ मनुष्य)...ओह मनुष्य तुम कितने निष्ठुर हो. तुम क्या जानो जब ऐसे मेरे पूरे होने को ही नकार देते हो तो फिर मेरे शब्द किसी उद्देश्य की पूर्ति नहीं कर पाते. 

मर जाने पर भी मरने क्यूँ नहीं देते...मुझे नहीं चाहिए अमरत्व...प्राणहीन...शुष्क...मत बचाओ मेरी आँखों की रौशनी, मुझे नहीं देखनी है ये दुनिया...बिना आँखों के ये दुनिया कहीं खूबसूरत लगती है. एक बात बताओ, मृत शरीर भी तुम्हें जीवंत क्यूँ दिखना जरुरी हो...मेरे प्राण लेने पर तुम्हें संतोष नहीं होता? 

कैथेड्रल, बर्न
बहुत जगह सुबह हो चुकी होगी...मेरा गाँव भी ऐसी जगह में से ही एक है. मगर तुम मेरे गाँव से चित्र चुराने आये हो, क्यूँ? मुझे नींद आ रही है अब...कल पूरी रात सो नहीं पायी हूँ. शाम को ही सुना था, कसाई नाप ले गया है...बकरा कटने के लिए तैयार हो गया है. 

मौत के बाद अँधेरे से आगे कुछ होगा? रौशनी होगी?

अगर मरने के पहले तुम्हें इस बात का यकीन दिला दिया जाए कि जिस्म के इस घर में एक दिल भी है... तो छुरा...ज़रा आहिस्ता...आहिस्ता 


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