05 January, 2011

ढाई आखर प्रेम का

इश्क सवालों की एक उलझी हुयी गुत्थी ही तो है और क्या. आज मैं आपको एक लड़की की कहानी सुनाती हूँ जिसकी जिंदगी में सवाल रास्तों की तरह खड़े हो जाते हैं...हर सवाल चुनने के पहले उसे ये भी देखना पड़ता है कि सवाल का उत्तर दे कर उसे ले जाने वाला सपनों का शहजादा दिखता कैसा है.
एक छोटे शहर की आम लड़की थी वो...नहीं नहीं वो रहती दिल्ली में ही थी, पर कहते हैं ना, कुछ शहर हमारे दिल के तहखानों में बसे होते हैं. उसकी दिली ख्वाहिश थी कि कोई शब्दों से उसका दिल चुरा कर ले जाए, पर उसे डर ये लगता था कि कोई उसकी सूरत पर ना मर मिटे...खुदा ने उसे कमाल का हुस्न बक्शा था...रंग जैसे दूध के मर्तबान में किसी ने सिन्दूर का हाथ लगा दिया हो गुलाबी उजला, गोल मासूम चेहरा और बड़ी बड़ी सुरमई आँखें...सपनीली, खोयी खोयी सी, उसपर हर रंग के कपड़े फबते थे पर जब वो वासंती पीला पहनती थी तो जैसे शरद में भी फूल खिल उठते थे.
उसके कमरे में फिल्म सितारों के नहीं किताबों के पहले पन्ने शीशे में मढ़ कर टंगे रहते थे...आलमारी पर उसने काफी कुछ चिपका रखा था, कई सारी पंक्तियाँ मोती जैसे अक्षरों में, अखबार की कतरनें, पत्रिकाओं से काटे गए चित्र. लड़की को लिखने का शौक़ भी एक ऐसे ही शायर को पढ़ कर जागा था. उसका पसंदीदा शगल था लेखकों को ख़त लिखना...लड़की का सोचना था कि तारीफ और बुराई दिल खोल कर करनी चाहिए, उसे कोई पसंद आता तो पन्ने दर पन्ने भर देती...लड़की ऐसा ही इश्क के बारे में सोचती थी, कि कुछ बचा कर नहीं करना...इश्क है तो पूरा है, मन से और आत्मा से है.
लड़की को अक्सर प्यार हो जाता, तब वो बेसब्री से अपने लेखक को पढ़ती...नायिका की जगह खुद को रखती, नाराज़ होती, मनुहार करती...कल्पना की एक पूरी दुनिया बस जाती उसके इर्द गिर्द, जिसमें कुछ पंक्तियाँ होती...कुछ फलसफे होते. बस वादे नहीं होते उसकी प्रेम कहानी में...ना मिलने का, ना बिछड़ने का. उसने कभी किसी से कुछ नहीं माँगा...उसका प्यार एकतरफा होके भी पूरा था क्योंकि प्यार सवाल नहीं करता था...वो खुद भी सवाल कहाँ करती थी कभी. उसके खतों में उसका नाम तक नहीं लिखा होता था कभी...पर उसके ख़त किसी बेहतरीन साहित्यिक रचना से कम नहीं होते थे. जिन खुशकिस्मत लेखकों को उसके ख़त मिले थे, वो अक्सर उसकी बातें किया करते थे. ऐसी कोई महफ़िल नहीं होती जिसमें उसके चर्चे नहीं होते.
सब कुछ अच्छा चल रहा था...बस एक दिन आलमारी ने गलती कर दी, आपको आलमारी याद है, जिसमें उसने कई पंक्तियाँ अपनी खूबसूरत लेखनी में सजा रखी थीं? एक शाम उसके घर एक मेहमान आया, उसे किसी कवि सम्मलेन में भाग लेना था. जैसा कि अधिकतर घरों में होता है, एक पंक्ति का परिचय दिया गया दोनों का, बस...और बात वहीं ख़त्म हो जाती पर चूँकि लड़की की अगले दिन हिंदी की वार्षिक परीक्षा थी, उसके पिता ने आगंतुक से उसके उत्तर जांच लेने को कहे. लड़की के कमरे में जाते ही लेखक ठिठक गया...लेखक जिसका कि नाम अक्षर था सवालों में घिर गया. आलमारी पर लिखे शब्द चलचित्र से उसकी आँखों में घूमने लगे...और एक पुराने कागज़ की लेखनी से हूबहू मिलने लगे. उसे एक मिनट का एकांत चाहिए था...सिगरेट के बहाने से निकला और लाइटर की रौशनी में उसने कई जगह से मुड़ा वो कागज़ निकाला...पास से देखने में कागज़ थोड़ा जल भी गया, पर पंक्तियाँ एकदम अलमारी पर की लेखनी से मेल खाती थीं.
अक्षर को चक्कर आ गया...तबीयत ठीक ना होने की बात कर के वो अपने कमरे में आराम करने चला गया. सारी रात वह सोचता रहा...उस ख़त के बारे में. क्या वो सच में लड़की का पहला ख़त था, उसे उससे पहला प्यार हुआ था? लड़की ने कभी ना अपना नाम बताया, ना पता...बस साल, महीने हफ़्तों उसके ख़त आते रहे. वह कहाँ भूल पाया था वो पहला ख़त, आज भी तो हमेशा अपने बटुए में लेके घूमता फिरता है. फिर क्या करना चाहिए उसे? पूछ ले उससे...बता दे कि उसके खतों ने कैसे उसे जिलाए रखा है, घनघोर गरीबी, दुत्कार और हर तरफ अस्वीकृतियों के बावजूद...उसके ख़त ने प्राण फूंके हैं उसके लेखन में. कि उसकी हर कृति में दीपशिखा सी वो जली है.
फिर उसकी आँखों में उभरा लड़की का चेहरा, उसकी चकित आँखें जब वो उसके कमरे में ठिठक गया था...उसका वो सवाल कि क्यों, क्या बात हुयी भला? आप मुझे पढ़ने से क्यों इंकार कर रहे हैं. कि वो उलझन में पड़ गया कि प्यार कहाँ था...उन खतों से या इस पनियाली आँखों वाली लड़की से प्रथम दृष्टि में जो हुआ वो प्यार था. कि क्या ये दोनों एक ही हैं, प्यार के दो रंग?
अगले दिन उसकी वापसी थी, उसने बस एक बार लड़की को आँखों से पिया...और विदा हो गया. लगभग तीन महीने बाद, लड़की के नाम एक ख़त आया...एक पुस्तक के विमोचन का आमंत्रण था और पुस्तक की पहली प्रति लेखक के दस्तखत के साथ थी.
उसने पूरी रात जाग कर उपन्यास पढ़ा, पूरा सच लिखा गया था सारे खतों के साथ...उपन्यास का अंत एक सवाल पर था, तुम्हारी जिंदगी में मेरी कोई जगह हो सकती है? लड़की सोचती रही, सोचती रही...सारे लेखक, उनको लिखे सारे ख़त...इश्क का हर पन्ना उसकी आँखों में तैरता रहा...पर हर रंग से गाढ़ा रंग था पहले प्यार का, पहले ख़त का. पर उसका सवाल अब भी बाकी था...सवालों का सही उत्तर देकर उसे ले जाने वाला सपनो का शहजादा दिखता कैसा है?
भोर के साथ सवाल एक ही रह गया था...इश्क का चेहरा कैसा होता है? कैसी होती हैं वो आँखें जिनसे इश्क देखता है. लड़की ने  वसंत के कपड़े पहने थे...और विमोचन पर जब उसने अक्षर को देखा...तो उसके सारे सवाल कहीं खो गए. सारे चौराहे, तिराहे, दोराहे मिल गए और एक गुलाब की पंखुड़ियों सा रास्ता सामने बिछ गया. पहला प्यार इतना खूबसूरत होता है, उसने पहली बार जाना. शब्दों में बंधा इश्क स्वतंत्र हुआ और मुकम्मल भी हुआ.

9 comments:

  1. ......बहुत सुंदर। सीधी-सरल प्यारी सी कहानी। कहानी का सुखांत अच्छा लगा। शब्दों की खूबसूरती अच्छी लगी।

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  2. कोमल कहानी प्रेम की।

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  3. सचमुच प्रेम की ही तरह कोमल कहानी।

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  4. कहानी एक ही साँस में पूरी पढ़ गयी..इस लड़की को शायद मैं भी जानती हूँ...

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  5. अंत भला तो सब भला..

    लड़की को उसका प्यार तो मिला

    इतनी सिद्दत है इसके प्यार में

    के जैसे ये प्यार नहीं करती पुजती है

    और अपने देवता को बताती तक नहीं

    ये भी कमाल है !!

    वैसे ये असल जिंदगी की बात लगती है

    कहानी नहीं ??

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  6. शब्दों का विस्तार बांधता है.. ऐसा लगता है कहीं मिली हूँ उस लड़की से ...

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  7. अक्षर की प्रेम कहानी, ढाई आखर की मानों रसीदी टिकट पर समा जाने वाली आत्‍मकथा.

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  8. बड़ी सुन्दर लगी यह कहानी.

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  9. पूजा,
    ये लड़की तो जानी पहचानी है लेकिन सवाल मेरे भी है कैसा होता है इश्क का चेहरा ? कैसे होता है मुकम्मल एक तरफ़ा इश्क ? बावरी है तुम्हारी नायिका.....वो तो बाईचांस अक्षर मिल गए उसे वरना खेलती रहती लफ्जों से....वरना कौन जाने उसके लिखे ख़त खुले, पढ़े भी जाते या नहीं

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