29 July, 2010

मेरा बिछड़ा यार...




इत्तिफाक...एक अगस्त...फ्रेंडशिप डे...और हमारी IIMC का रियुनियन एक ही दिन...वक़्त बीता पता भी नहीं चला...पांच साल हो गए...२००५ में में पहला दिन था हमारा...आज...पांच साल बाद फिर से सारे लोग जुट रहे हैं...


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आखिरी दिन...कॉपी पर लिखी तारीख...आज से पांच साल बाद हम जहाँ भी होंगे वापस एक तारीख को यहीं मिलेंगे...उस वक़्त मुस्कुरा के सोचा था...यहीं दिल्ली में होंगे कहीं, मिलने में कौन सी मुश्किल होगी...आज बंगलोर में हूँ...जा नहीं सकती.


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मैं फेसबुक बेहद कम इस्तेमाल करती हूँ...आज तबीयत ख़राब थी तो घर पर होने के कारण देखा...कम्युनिटी पर सबकी तसवीरें...गला भर आया...और दिल में हूक उठने लगी...जा के एक बार बस सब से मिल लूं तो लगे कि जिन्दा हूँ.


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भर दोपहर स्ट्रिंग्स का गाना सुना...मेरा बिछड़ा यार...सुबह के खाने के बाद कुछ खाने को था नहीं घर पर...बाहर जाना ही था...कपडे बदले, जींस को मोड़ कर तलवे से एक बित्ता ऊपर किया, फ्लोटर डाले और रेनकोट पहन कर निकली ब्रेड लाने...गाना रिपीट पर था...कुछ सौ मीटर चली थी कि बारिश जोर से पड़ने लगी...


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रेनकोट का हुड थोड़ा सा पीछे सरकाती हूँ...तेज बारिश चेहरे पर गिरती है, आँखों में पानी पानी...बरसाती नदी...और बंगलोर पीछे छूट गया...जींस के फोल्ड खुल गए, ढीला सा कुरता और हाथों में सैंडिल...कुछ बेहद करीबी दोस्त...एक भीगी सड़क. गर्म भुट्टे की महक, और पुल के नीचे किलकारी मारता बरसाती पानी. ताज़ा छनी जिलेबियां अखबार के ठोंगे में...गंगा ढाबा की मिल्क कॉफ़ी और वहां से वापस आना होस्टल तक...


उसकी थरथराती उँगलियों को शाल में लपेटना...भीगे हुए जेअनयू के चप्पे चप्पे को नंगे पैरों गुदगुदाना...पार्थसारथी जाना...आँखों का हरे रंग में रंग जाना...दोस्ती...इश्क...आवारगी...जिंदगी.
IIMC my soul.
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काश मैं दिल्ली जा सकती...
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करे मेरा इन्तेजार...मेरा बिछड़ा यार...मेरा बिछड़ा यार...

28 July, 2010

बिल्ली भयी कोतवाल अब डर काहे का

बंगलोर का मौसम आजकल बड़ा सुहाना हो रखा है. हलकी सी ठंढ पड़ती है और फुहारों वाली बारिश होती रहती है. सुबह सूरज भी बादल की कुनमुनी रजाई ढांप कर पड़े रहता है. ऐसे मौसम में सुबह उठना मुश्किल और नामुमकिन के बीच का कुछ काम है. 

इधर कुछ दिनों से मेरी तबीयत भी काफी ख़राब चल रही थी. बात दरअसल गोल गोल घूमकर ढाक के तीन पात हो गयी थी. तबीयत खराब होने के कारण खाना नहीं बनती थी, और खाना नहीं बनाने के कारण तबीयत और खराब होती जाती थी. तो कुछ दिन पहले मैंने हथियार डाल दिए, हथियार बोले तो बेलन, छोलनी, चिमटा आदि...घर में  एक कुक का इंतज़ाम कर लिया. सुबह का नाश्ता और रात का खाना घर पर बन जाता था और दीपहर में ऑफिस की कैंटीन जिंदाबाद. 

हाथ में दर्द होने के कारण बाइक चलाना बंद था...कुणाल रोज सुबह कार से पहुंचा देता था, लौटते हुए श्रुति नाम की बेहद भली लड़की अपनी बाइक से घर पहुंचा दिया करती थी. ऑफिस आते जाते दोनों भले इंसानों से गप्प करते हुए रास्ता भी मजे से कट जाता था. कह सकते हैं कि मेरी ऐश थी. लगता था होस्टल वाले दिन वापस आ गए हैं. बस ऑफिस जाओ, दोस्तों से गप्पें करो और अच्छी किताबें, फिल्में, गाने...सब अच्छा चल रहा था. 

तो मैं बता रही थी बिल्ली के बारे में....
ऐसा हुआ कि एक भले दिन मैं घर से देर चली थी, हमेशा की तरह. वैसे लेट की उतनी फिकर नहीं होती है क्योंकि ऑफिस में नौ घंटे बिताना जरूरी है बस...फिर भी लेट जाना अच्छा नहीं लगता है ऑफिस. सारे लोग आ गए होते हैं...यहाँ मेरी टीम में अधिकतर लड़के हैं उनको सुबह करना ही क्या होता है, भोरे भोर उठ कर पहुँच जाते हैं. शामत हम बेचारों की आती है :)

कुणाल बेचारा आधी नींद में उठता है और कार ले कर चल देता है हमको पहुंचाने. तो हमारी कार का होर्न ही नहीं बज रहा था...और बंगलोर में बिना होर्न बजाये जाना नामुमकिन है. तो घर से आधी दूर पर हम झख मारते ऑटो का इन्तेजार करने लगे. भगवान् मेहरबान था तो ऑटो मिल गया.

गाड़ी  सर्विस सेंटर भेजी...दोपहर को फ़ोन आया उनका...कार के तार चूहे कुतर गए हैं...अब बताओ भला, इत्ती बड़ी गाड़ी बनायीं, उसमें एक ऑटोमेटिक चूहेदानी नहीं लगा सके कि चूहे नहीं आयें. कमसे कम जाली टाईप का ही कुछ लगा देते कि चूहे अन्दर नहीं आ सकें. गाड़ी वापस आई तो हमने पुछा कि क्या करें...तो बोलता है कि गाड़ी सुरक्षित जगह पर लगायें. अब अपार्टमेन्ट में लगाते हैं, और किधर लगायें, कौन सा गटर में लगते हैं कि बेहतर जगह लगा सकें. 

चूहे मारने कि दवा रखने कि सलाह भी दी उन्होंने. मैं सोचती हूँ कि और कैसी जगहें होंगी जहाँ चूहे नहीं होते होंगे. किसी कार के सर्विस स्टेशन से मिली ये अब तक की सबसे अजीब सलाह में से आती है. चूहे मारने की दवा दें...

गाड़ी की सुरक्षा के लिए हम एक बिल्ली पालने की सोच रहे हैं...एक ऐसी बिल्ली जिसका खाने का टेस्ट एकदम खालिस बिल्ली वाला हो, और जो चूहों के शिकार में निपुण हो. बिल्ली को रोज सुबह दूध मलाई मिलेगी...दिन भर भूखा रखा जाएगा ताकि शाम को चूहे पकड़ने के काम में उसका मन लगे.  बिल्ली को दिन भर सोने की पूरी इजाजत है...रात को जाग कर पहरा देने के लिए जरूरी है कि वो दिन में भरपूर नींद ले. बिल्ली को महीने में एक वीकेंड छुट्टी मिलेगी जिसमें वो बाकी बिल्लियों से मिलने जा सकती है. बिल्ली की इच्छा हो तो वो अपने साथियों को भी बुला सकती है. बिल्ली चतुर और निडर हो...दिखने में मासूम और क्यूट हो और कम बोलने वाली हो तो अतिरिक्त बोनस मिलेगा. 

तो अगर आप किसी ऐसी बिल्ली को जानते हैं तो कृपया खबर करें...जानकारी देने वाले को उचित इनाम दिया जाएगा. 

27 July, 2010

कहवाखाने का शहज़ादा

यमन देश के एक छोटे से प्रान्त में एक कहवाखाना हुआ करता था. रेत के टीलों में दूर देश के मुसाफिर जैसे पानी की गंध पा कर पहुँच जाते थे. एक छोटा सा चश्मा उस छोटी सी बस्ती को जन्नत बनाये रखता था. बस्ती से कुछ ही दूर समंदर शुरू होता था, इस अनोखी जगह को लोग खुदा की नेमत समझते थे. व्यापारी यहाँ मसाले, हीरे, पन्ने , कई और बेशकीमती जवाहरात और महीन रेशम की बिक्री करने के लिए आते थे. जिंदगी को खूबसूरत बनाने वाली ये चीज़ें मुंहमांगे दाम पर बिकती थीं.

बस्ती का कहवाखाना किस्सों की एक चलती फिरती तस्वीर हुआ करता था. कई देशों की तहजीबें, अलग लोग, अलग रहन सहन, किस्सों का अलग तरीका...यूँ तो किस्से तरह तरह के होते थे, सुल्तानों के, कर ना दिए जाने पर ढाए सितम के, पर किस्से का खुमार बस एक ही...इश्क.

शाम ढलते ही कई रंग घुल जाते थे समंदर से आती हवाओं में और रुबाब गाने लगता था. कहवाखाने के दो कोने में मोम पिघलता रहता था पूरी रात...समंदर की नमकीन हवाओं में थिरकती लौ में एक उन्नीस साल का लड़का किस्से कहता था. उसकी आँखें नीली और पारदर्शी थी, जब रुबाब छेड़ता तो उड़ती रेत उसके किस्से एक दर्द की धुन में छुपा कर नीलम के एक ऊंचे कंगूरे तक पहुंचा देती थी. अगली सुबह जब पर्दानशीनो का जुलूस बाग़ के लिए निकलता था तो बिना हवा के भी एक नकाब खुल सा जाता था और सुनहली आँखें उसकी नीली आँखों पर थिरक उठती थीं. सहर की धूप समंदर की लहरों को छू कर ऊपर उठती थी. एक अगली रोज के लिए.

साल के जलसे पर एक रूहानी गीत के गाया गया, इश्क के इन्द्रधनुषी रंगों को समेटे हुए...एक हसीना का नकाब हलके से सरका और नीली और सुनहली आँखों ने सदियों के बंधन क़ुबूल लिए.

अगली सुबह समंदर का नीला पारदर्शी गहरा लाल होता जा रहा था. लहरें, किनारे, आसमान...सब कुछ लाल...कत्थई और धीरे धीरे सियाह हो गया.

कहते हैं उस रात पूरी बस्ती रेत में मिल गयी...आज भी रेगिस्तान में भटके लोगों को पानी का छलावा होता है. रात को चलते कारवां अक्सर एक रूहानी गीत की तलाश में भटक जाते हैं.

इश्क तब से जाविदा है. और इश्क करने वाले... फ़ना

22 July, 2010

हमेशा के लिए अधूरा हो जाना

किसी से प्यार करने पर
हमेशा के लिए अधूरा हो जाना पड़ता है
नहीं वापस मिलता है बहुत कुछ...

अच्छी तरह कमरा बुहार कर आने के बाद भी
सब कुछ कहाँ वापस आ पाता है
छूट ही जाती हैं कुछ किताबें, और उनके पन्नो पर लिखा हुआ कुछ
किसी के नाम के सिवा, किसी रिश्ते के सिवा

हलक में अटक जाता है एक नाम
और सदियों हिचकियाँ आती रहती हैं
एक फिसलते अहसास को बाँधने की कोशिश करते हुए
हाथ कभी छूटता नहीं है छूट कर भी

जब भी आसमान रिसता है
यादों के गाँव में कुछ भी सूखा नहीं रहता
पलंग पर रखनी पड़ती हैं किताबें
और सोना पड़ता है गीले फर्श पर

चली जाती हैं आँखों की आधी चमक
मेह जाती है हँसी की खनखनाहट
उसको लिखते हुए ख़त्म हो जाती है
एक अधूरी जिंदगी, शब्द निशब्द

किसी से प्यार करने पर
बहुत कुछ साथ चले आता है उसका
होना हमेशा खुद से ज्यादा हो जाता है

(१२ जुलाई को अधूरी लिखी...आज दर्द में पूरी की...इसका अधूरापन कुछ जियादा ही साल रहा था)

17 July, 2010

ख़ामोशी के दोनों छोर पर

एक शोर वाली रात थी वो, एक भागते शहर की एक बेहद व्यस्त शाम गुजरी थी अभी अभी, बहुत सी निशानियों को पीछे छोड़ते हुए. अनगिनत होर्न, आँधियों वाली एक बारिश, अँधेरा सा दिन, सहमा सा सूरज...दर्द की कई हदों को छूते और महसूस करते हुए एक लड़की सड़क के किनारे भीगते हुयी चल रही थी, उसका चेहरा बिजली की चमक में सर्द दिखने लगता था. उसके उँगलियाँ एकदम बर्फ हो गयीं थीं, सदियों में किसी ने उसकी हथेली को चूम के पिघलाया नहीं था. सुनहली आँखें, जिनमें अभी भी कोई लपट बाकी दिखती थी, गोलाई लिए चेहरा मासूमियत से लबरेज. खूबसूरती और दर्द का एक ऐसा मेल की देखने वाले को उसके जख्मों की खरोंच महसूस होने लगे.
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उस रात मैं मर जाना चाहती थी, इतनी बारिश इतना अँधेरा दिन, घर भूला हुआ छाता, यादों का ऐसा अंधड़...तन्हाई का ऐसा शोर. बस स्टाप से घर की दूरी...उसपर हर इंसान की ठहरती हुयी नज़र. इनको क्या मेरी आँखों का सारा दर्द नज़र आता है, इतनी बेचारगी क्यों है सबकी आँखों में...सहानुभूति...जैसे की ये समझ रहे हों हालातों को. नौकरी का आखिरी दिन था आज...ये तीसरी जगह है जहाँ से इसलिए निकाला गया की मैं खूबूरत हूँ. बाकी लोग काम पर ध्यान नहीं लगा पाते. उसने भी तो इसलिए मुझे छोड़ा था क्योंकि मुझे घूरते बाकी लोग उसे बर्दाश्त नहीं होते थे. रोज के झगडे, इतना सज के मत निकला करो, बिंदी तक लगाना बंद कर दिया मैंने...माँ कहती थी काजल लगाने से नज़र नहीं लगती...शायद मुझे नज़र लग गयी है.

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कांपते हाथों से उसने फ़ोन लगाया...एक बार उसकी आवाज सुन लेती तो शायद जिंदगी जीने लायक लगने लगती...फ़ोन पर किसी तरफ से कोई कुछ नहीं बोला...

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घर पहुँचते ही बेटी दौड़ के गले लग गयी. वो लगभग बेहोश हो चुकी थी...आँखें खुली तो सुबह की धूप खिड़की से आ रही थी...उसने देखा बेटी की आँखों का रंग बेहद सुनहला था, उसकी खुद की आँखों की तरह.
जिंदगी फिर से जीने लायक लगने लगी.

12 July, 2010

इश्क की बाइनरी थीसिस

ऑफिस का बहुत सारा काम अटका पड़ा है, रात भी अधूरी, ठिठकी खड़ी है...और कितने चित्र, कितने वादे आँखों में  ठहरे हैं, गुजरते ही नहीं. हाथ का दर्द हद से जियादा बढ़ता जा रहा है, लिखना भी अजीब मजबूरी होती है. पढ़े बिना फिर भी जिया जा सकता है, लिखे बिना...कुछ ऐसा महसूस होता है जैसे खाना नहीं नहीं खाया हो.

कोई सदियों बाद फ़ोन पर पूछता है, वापस नहीं आ सकती...वो कहती है, नहीं बहुत दूर आ गयी हूँ, तुमने पुकारने में बहुत देर कर दी. वो लौटती नहीं है, मुमकिन नहीं था. पर अब भी किसी अधूरी ठिठकी हुयी रात उसके चेहरे की बारीकियों को अपने चश्मे से साफ़ करने में देर कर रही है. ऑफिस का काम पड़ा हुआ है.

किसी प्रोफाइल में गूगल उससे पूछता है, बताओ ऐसा क्या है जो मैं तुम्हें नहीं बता सकता...वो बंद आँखों से टाईप करती है 'वो मुझे याद करता है या नहीं?' गूगल चुप है. पराजित गूगल अनगिनत तसवीरें उसके सामने ढूंढ लाता है. बर्फ से ढके देश, नीली पारदर्शी सुनहली बालुओं किनारों के देश. उसकी तसवीरें बेतरह खूबसूरत होती हैं. वेनिस, परिस, वियेना कुछ शहर जो इश्क की दास्तानों में जीते लगते हैं आज भी. उसकी आवाज सुनकर आज भी वो भूल जाती है कि वो क्या कर रही थी. हाँ, वो गूगल से पूछ रही थी, बताओ दिल के किसी कोने में मैं  हूँ कि नहीं, क्या कभी, दिन के किसी समय वो मुझे याद करता है कि नहीं. गूगल खामोश है. वो गूगल को नाराज भी तो नहीं कर सकती...ऑफिस का काम जो है, आज रात ख़त्म करना होगा.

इश्क जावेदा...सच, पूछो उसकी थकी उँगलियों से...बचपन का प्यार, उफ़. उसकी उँगलियाँ कितनी खूबसूरत थी, और वो जब कम्पूटर पढाता था कितना आसान लगता था. उसके जाते ही सब कुछ बाइनरी हो जाता था, जीरो और वन...वो मुझसे प्यार करता है - वन, वो मुझसे प्यार नहीं करता- जीरो. डेरी मिल्क, उसीने तो आदत लगायी थी...कि आजतक वो किसी से डेरी मिल्क शेयर नहीं करती.

यादें अब भी बाइनरी हैं...वो मुझे याद करता है ...वन...यस...हाँ
वो मुझे याद नहीं करता...जीरो...नो...नहीं

07 July, 2010

सपनो का अनजानी भाषाओँ का देश

इतना मुश्किल भी नहीं है
अभी इन्सान पर भरोसा करना

भाषिक आतताइयों के देश में
किसी साधारण उन्माद वाले दिन
वो नहीं करेंगे तुमसे बातें

मगर किसी अनजानी भाषा के देश में
भूखे नहीं मरोगे तुम
अहम् जिजीविषा से ज्यादा नहीं होता

इसी विश्वास से
बांधो यथार्थ और चलो
सपनों की तलाश में

कहीं मिलेगा खँडहर
नालंदा की जल चुकी किताबों में
हिमालय में कुछ पांडुलिपियाँ

इतिहास से निकलेगा
कोई रास्ता किसी देश का
एक मानचित्र सपनो का

आँख मूँद कर चल देना
सपनो का देश घूमने
लौट आना है जल्दी ही

ज्यादा दिन नहीं हैं जब मुश्किल होगा...इन्सान पर भरोसा करना 

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