15 December, 2010

लहरों का सफ़र, किनारे तक

आज सुबह उठी तो पोस्ट लिखी कि पिछले पांच सालों में ब्लॉग में क्या क्या किया...क्या लिखा क्यों लिखा वगैरह. फिर सोच रही थी...कित्ता बोरिंग है. इतिहास इतना बोरिंग होता है, क्या लिखा, कैसे बदले...मानो कोई बहुत बड़ा तीर मारा है. ये सब लिखने के लिए बड़े लोग हैं. तो लगा कि बेस्ट है लिखना कि आज क्या लिखती हूँ, क्यों लिखती हूँ वगैरह. कई बार लगता है कि हम कल के पीछे इतना भागते हैं कि आज की प्रासंगिकता ही खो देते हैं.

२००५ में एहसास से शुरू हुआ सफ़र २००७ में लहरें पर आ के थोड़ा रास्ता बदलने को उत्सुक था. तो नया ब्लॉग बना लिया...मोस्टली इंग्लिश की पोस्ट्स लिखने के लिए और एक डेली जर्नल की तरह. अंतर ये था कि बजाये ये लिखने के कि मैंने आज क्या किया, जैसे खाना खाया, ऑफिस आई, बस पकड़ी वगैरह मैंने वो लिखना शुरू किया जो मैंने आज महसूस किया. किसी विचार ने परेशान किया वगैरह. कुछ ऐसा जो दिमाग में जाले बना रहा हो उसको उठा कर लहरों में बहा दिया. बचपन में भी जब डायरी लिखती थी तो ऐसे ही लिखती थी, कभी ये नहीं लिखा कि क्या घटा...हमेशा ये लिखा कि क्या महसूस हुआ. इसलिए पुरानी डायरियों में डूबते सूरज को रोकने की कोशिश, बारिश में भीगने का अहसास तो मिलता पर ये नहीं मिलता कि कहाँ, क्यों, कैसे...वगैरह. जब std 7 में पढ़ते थे तब ही सर ने कहा था कि डायरी लिखने से हिंदी अच्छी होती है. तब से ही उनकी बात मन में बाँध ली थी. उसके पहले जब हर ४ साल पर घूमने जाते थे तो भी दिन भर कौन से शहर में क्या देखा ये बचपन से लिखते थे. आज वो कोपियाँ पता नहीं कहाँ है पर पटना तक तो आराम से मिल जाती थी मुझे अलमारी के किसी कोने में.

आजकल लिखना दो तरह का होता है...एक तो आम पोस्ट कि आज ये किया, घूमने गए वगैरह...travelog मुझे आज भी बहुत फैसिनेटिंग लगते हैं, पर अब उतना घूमती नहीं हूँ कि लिख सकूँ और उसके लिए जो ढेर सारे फोटो चाहिए वो तो सारे बस दिमाग में हैं, उनको डेवलप कैसे करूँ. दूसरी और मेरी पसंदीदा टाईप कि पोस्ट होती है जिसमें माहौल सच होता है, लोग वही होते हैं जो मैंने अपने आसपास देखे हैं पर घटना काल्पनिक होती है. मैं एकदम नए कैरेक्टर थोड़े कम लिखती हूँ...मेरे अधिकतर लोग आधे सच आधे झूठ होते हैं. इसी तरह जगहें भी...सच की जमीं पर उगती हैं पर उनका आकाश अपना खुद का रचा होता है. मेरा लिखना वो होता है जो मन में आता है...जैसे कि किसी डायरेक्टर को शायद vision आते हैं वैसे ही कई बार पोस्ट लिखने के पहले कुछ वाक्य होते हैं तो मन के निर्वात में तैरते रहते हैं. उनको लिखना बड़ा सुकून देता है.

कई बार मैं जो लिखती हूँ लोग समझते हैं कि मेरी जिंदगी में घटा है...ऐसा कई बार होता भी है है, पर कई बार नहीं भी होता. और मेरे ख्याल से ऐसा ही कुछ मैं भी कहीं पढ़ना चाहती हूँ जिसमें एक हलकी सी धुंध के पार सब दिखे...कि जिसमें सवाल उठे कि क्या ऐसा सच में हुआ था? इसे मैं अपनी क्रिएटिव फ्रीडम मानती हूँ. अगर मुझे सिर्फ सच लिखने के बंधनों से बाँध दिया जाए तो छटपटा जाउंगी. पर हर बार कुछ कल्पना में लिखे को लोग संस्मरण कह के बधाई दे जाते हैं तो सफाई देने का मन भी नहीं करता...कई बार करता है तो दे भी देती हूँ. अभी तक के अनुभव से देखा है कि कविता को इस तरह के बंधन में नहीं बाँधा जाता, पर गद्य में लिखना वो भी फर्स्ट पर्सन में तो अक्सर लोगों को सच लगता है. ऐसा बहुत पहले मुझे महेन की कहानियां पढ़ के लगता था, कि जो घटा नहीं उसका ऐसा कैसे वर्णन किया जा सकता है. उस वक़्त मैं कहानियां लिखती भी नहीं थी.

शुरू में मुझे कहानियां और व्यंग्य दोनों लिखना नहीं आता था...कुछ कोशिशें कि थी पर नोवेल लिखने की, छोटी कहानियां नहीं लिखने की सोची कभी. मैं फिल्म स्क्रिप्ट लिखती हूँ तो मुझे सपने जैसे आते हैं, किरदार, सेटिंग, डाइलोग, कैमरा एंगल सब जैसे आँखों के सामने फ्लैश करता है. कहानी लिखते समय भी कुछ वैसा ही होने लगा...शुरू में बस जानी पहचानी जगहें आती थी इन फ्लैशेस में तो वैसा ही लिखती थी. किरदार अक्सर काल्पनिक होते थे क्योंकि लोगों को observe करना शुरू कर दिया था मैंने जब फिल्में बनाने की सोची थी, कुछ एकदम काल्पनिक भी लिखा, जैसे कहवाखाने का शहजादा. अभी लिखना वैसा ही होता है फ्लैश आता है, कुछ चीज़ें तैरने लगती हैं और जैसे जैसे लिखती जाती हूँ एक दुनिया बनती जाती है. मेरे ख्याल से लेखक का लिखा हुआ सब कुछ उसके या किसी और के जीवन में घटा हुआ हो ये जरूरी नहीं ये बाध्यता होनी भी नहीं चाहिए. होना चाहिए बस एक झीना पर्दा, सच और झूठ के बीच.

चूँकि लिखने का माध्यम ब्लॉग है तो कई बार ये taken for granted होता है कि घटनाएं सच्ची हैं. आज बस ऐसे ही  मन किया कि कह दूं...कि हमेशा लिखा हुआ सच नहीं होता. बार बार कहना कि संस्मरण नहीं है, कहानी है से बेहतर एक ही बार कह दिया जाए :)

14 comments:

  1. मेरे ख्याल से लेखक का लिखा हुआ सब कुछ उसके या किसी और के जीवन में घटा हुआ हो ये जरूरी नहीं ये बाध्यता होनी भी नहीं चाहिए. होना चाहिए बस एक झीना पर्दा, सच और झूठ के बीच.


    इस बात से पूरी तरह सहमत .....क्यों कि मैं भी अपनी कविताएँ या नज़्म कभी कभी बिलकुल काल्पनिक लिखती हूँ . :):)

    बहुत पसंद आई यह दिल की बातें ...

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  2. कभी लिखिए ना की आप क्यों लिखती हैं, क्या लिखती हैं और कैसे लिखती हैं.

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  3. मुझे याद आ रहा है मनोहर श्‍याम जोशी जी के मनोहर, जोशी जी और मनोहर श्‍याम जोशी, उनका उल्लिखित बायस्‍कोप और गप्‍प-गल्‍प.

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  4. ठीक कहा पूजा.. ऐसा ही मुझे भी लगता है जब फर्स्ट पर्सन में लिखता हूँ.. खैर लिखते रहना ही सही मायनों में जीना है.. क्यू कब कैसे ये इतना इम्पोर्टेंट नहीं है..

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  5. ठीक कहा पूजा.. ऐसा ही मुझे भी लगता है जब फर्स्ट पर्सन में लिखता हूँ.. खैर लिखते रहना ही सही मायनों में जीना है.. क्यू कब कैसे ये इतना इम्पोर्टेंट नहीं है..

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  6. आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
    प्रस्तुति कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
    कल (16/12/2010) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
    देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
    अवगत कराइयेगा।
    http://charchamanch.uchcharan.com

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  7. लेखनी की यात्रा मन के किन किन मार्गों से होकर जायेगी, इसका अनुमान तब तक नहीं होगा जब तक आप कुछ लिख नहीं देते हैं। लेखन से जीवन का सम्बन्ध ढूढ़ने का क्रम बहुत पुराना है, कई लोग मानते हैं कि गहरा लिखना खल्पना से कम अनुभव से अधिक आता है।
    क्या लिखा, कैसे लिखा, उस पर नहीं जाऊँगा, पर जो भी लिखा, मन से लिखा आपने क्योंकि पढ़कर अनुभूति भी वैसी ही हुयी।

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  8. लिखना अपने ख्यालो को पैरहन देना है ...!!!

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  9. मैं अभी तक सच से बाहर निकल कर आधे सच, आधे झूठ तक अथवा पूरे झूठ तक नहीं पहुँच पाया हूँ.. हाँ, धीरे धीरे पूरे सच से बाहर जरूर निकल गया हूँ.. कुछ चीजें मैंने लिखी जो पूरे सच से कहीं दूर था, मगर उसे सिर्फ अपने लिए रख छोड़ा.. थोड़ा और मैच्योर हो जाऊं फिर उसे दूसरों तक ले कर जाऊं..

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  10. पूजा जी
    सस्नेह नमस्कार।
    आपके ब्लॉग पढ़ता रहता हूÞ। मेरे निजी विचारों और दिल के करीब होते हैं। ऐसा कुछ जिसे मैं अभिव्यकित नहीं दे सकता । जैसे हरएक की एक निर्धारित सीमा होती है। मैं भी सीमित हूं असीमित अकांक्षाओं के साथ। खैर ये मेरा अधूरापन है जिसे कोई नहीं समझ सकता। बहरहाल मेरा आपसे एक सवाल है । कया आपने अरूंधती रॉय को पढ़ा है। मेरा इरादा कतई उनसे प्रभावित होकर आपसे उम्मीदें करने का नहीं है। पर कल एक अजीब वाकया हुआ। मैंने अपने एक सम्मानीय मित्र को आपका ब्लॉग पढ़ाया तो रिस्पांस निराशाजनक रहा। उन्होंने कहा कि ये लेखन काल समय और देशकाल व ब्रॉड प्रास्पेकटस के करीब नहीं है और एक बड़े जनसमुदाय का इससे कोई सरोकार नहीं है। मैंने कहा ये एक निजी लेखन है जो हर किसी की निजता से जुड़ा है और इंसान अपने को इस लेखन के आइने में महसूस कर सकता है । पर उनकी बात कहीं गहरे चुभ गर्इं। शायद आप कुछ समझ सकें। मेरी समझ में ये बड़ी बातें नहीं आती। बस आपका शुभचिंतक हूं और अनजाने ही आपके लिए एक साफट कार्नर है। रही अरूंधती रॉय को पढ़ने की तो इसे मेरी सलाह मान लिजिए
    आप लंबी रेस के ............
    धन्यवाद।

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  11. oh accha...to ye wajah hai ke main kabhi diary kyun nahin likh paayi...kab kahan kaise likhne lagti thi....aur phir itni bore ho jaati thi ke chod deti thi ;)

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  12. बहुत खुब प्रस्तुति.........मेरा ब्लाग"काव्य कल्पना" at http://satyamshivam95.blogspot.com/ जिस पर हर गुरुवार को रचना प्रकाशित...आज की रचना "प्रभु तुमको तो आकर" साथ ही मेरी कविता हर सोमवार और शुक्रवार "हिन्दी साहित्य मंच" at www.hindisahityamanch.com पर प्रकाशित..........आप आये और मेरा मार्गदर्शन करे..धन्यवाद

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