19 November, 2010

दिल्ली में

सुबह कोहरा फटक रही थी
सड़कों के सूप से 
अच्छा वाला सारा कोहरा
डब्बों में बंद करती जाती थी
जाड़ों के सबसे अच्छे दिनों के लिए
जो एक लड़की ने दो साल पहले 
दुआओं में मांगे थे

बचा हुआ कोहरे का थोड़ा हिस्सा
पेड़ बुहार रहे हैं अपने पत्तों से 
जिससे भाप लगे कांच के पीछे सी
धुंधली हो जाती है धूप, अक्सर 

कोहरे के कारण
'सुबह' लेट हो जाती है 
रात को ओवरटाइम करना पड़ता है 

कुछ अपनी अपनी सी लगती है दिल्ली
थोड़ी अजनबी सी भी
जैसे बिछड़े दोस्त, थोड़े बदल जाते हैं
साल दर साल
लगता भर है कि सदियाँ बीत गयीं
----------------
दिल्ली की सड़कों से गुजरते हुए...अलसुबह 

9 comments:

  1. अभी और आयेंगे... बल्लीमारान से झंडेवालान तक बोले तो सारे कोने छान मारो

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  2. बचा हुआ कोहरे का थोड़ा हिस्सा
    पेड़ बुहार रहे हैं अपने पत्तों से
    जिससे भाप लगे कांच के पीछे सी
    धुंधली हो जाती है धूप अक्सर

    प्रकृति के सुंदर दृश्य का मनमोहक चित्रण ।

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  3. कोहरा और मन समानधर्मी हैं, छाते और छटते हैं। मन की यादों का कोहरा शीघ्र छटे, बेचारी रात ओवरटाइम क्यों करे?

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  4. भावपूर्ण अभिव्यक्ति...

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  5. ateet ko lapettee sahejatee prakruti ko aanktee abhivykti sunder lagee .

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  6. आपका केमरा बेहतरीन है.

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  7. बचा हुआ कोहरे का थोड़ा हिस्सा
    पेड़ बुहार रहे हैं अपने पत्तों से
    जिससे भाप लगे कांच के पीछे सी
    धुंधली हो जाती है धूप, अक्सर

    खूबसूरत वर्णन

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  8. अच्छे बिम्बों का प्रयोग है ।

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  9. That was a good description. What I particularly liked was the thought that how good you might have felt while you were watching all of this unwind in front of you while your mind was registering all that it could so that you could write this. Keep up the good work.

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