04 November, 2010

याद का एक टहकता ज़ख्म

सबसे पहले आती है एक खट खट वाले पुल की आवाज़...फिर पहाड़ों के बीच से निकलती जाती है रेल की पटरी और कुछ जाने पहचाने खँडहर दीखते हैं जो सालों साल में नहीं बदले...कुछ इक्का दुक्का पेड़ और सुरंग जैसा एक रास्ता जिससे निकलते ही जंक्शन दीखता है. 
नहीं बदला है माँ...कुछ भी नहीं बदला है.
ट्रेन रूकती है और अनजाने आँखें तुमको उस भीड़ में ढूंढ निकालना चाहती हैं...हर बार जब इस स्टेशन पर उतरती हूँ लगता है मेरी बिदाई बाकी है और अभी हो रही है क्योंकि इस स्टेशन पर तुम नहीं होती...ऐसा कभी तो नहीं होता था मम्मी की हम कहीं से भी आयें और तुम स्टेशन लेने न आओ. मुझे ये स्टेशन अच्छा नहीं लगता, न ये ट्रेन अच्छी लगती है...मुझे आज भी उम्मीद रहती है, एक बेसिरपैर की, नासमझ उम्मीद की स्टेशन पर तुम आओगी.
पता है माँ...आजकल हम तुम्हारे जैसे दिखने लगे हैं. कई बार महसूस होता है की तुम ऐसे हंसती थी, तुम ऐसे बोलती थी या फिर तुम ऐसे डांटती थी. ऐसे में समझ नहीं आता की खुश होऊं की उदास...कभी कभी लगता है की तुम सच में कहीं नहीं गयी हो, मेरे साथ हो...कभी कभी बेतरह टूट जाते हैं की तुम कहीं भी नहीं हो...की तुम अब कभी नहीं आओगी. काश की कोई पता होता जहाँ तुम तक चिट्ठियां पहुँच सकतीं. भगवान में भी विश्वास कोई स्थिर नहीं रहता, डोलता रहता है. और अगर किसी दुसरे की नज़र से देखें तो हमको खुद ऐसा लगता है की मेरा कोई anchor नहीं है. की समंदर तो है, बेहद गहरा और अनंत पर ठहरने के लिए न कोई बंदरगाह है, न कोई रुकने का सबब और न ही कोई रुकने का तरीका. 
आज तीन साल हो गए तुम्हें गए हुए...और पता है कि एक लम्हा भी नहीं गुज़रा, कि आज भी सुबह उठते सबसे पहले तुमको ही सोचती हूँ... fraction में बात करूँ तो भी एक जरा भी अंतर नहीं आया है. लोग कहते है की वक़्त सारे ज़ख्म भर देता है, मैं उस वक़्त का इंतज़ार कर रही हूँ...जैसे कोई जरूरी अंग कट गया हो शरीर से माँ...तुम क्या गयी हो जैसे मेरे सारे सपने ही मर गए हैं...जिजीविषा नहीं...कोई उत्साह नहीं. कितनी कोशिश करनी होती है एक नोर्मल जिंदगी जीने में...और कितनी भी कोशिश करूँ कम पड़ ही जाता है. तुम हमको एकदम अकेला छोड़कर चली गयी हो माँ...तुम हमसे एकदम प्यार नहीं करती थी क्या?
सालों बाद  देवघर में हूँ...बस लगता है जैसे देवघर में अब 'घर' नहीं रहा. घर तो खैर लगता है कहीं नहीं रहा...मुसाफिर से हैं, दुनिया सराय है...आये है कुछ दिन टिक कर जायेंगे. तुम मेरे सारे त्योहारों से रंग ले गयी हो माँ. कितनी मुश्किल होती है यूँ हंसने में...बोलने में...जिन्दा रहने में. कहाँ चली गयी हो मम्मी...तुम्हारे बिना कुछ भी, कभी भी अच्छा नहीं लगता...कोई ख़ुशी पूरी नहीं होती. मैं तुमसे बहुत प्यार करती हूँ मम्मी...तुम्हारी बहुत याद आती है...बहुत बहुत याद आती है. 
मैं कुछ भी करके अपने दर्द को कम नहीं कर पाती हूँ माँ...लिख कर नहीं, किसी से बात कर नहीं...रो कर नहीं. 
सारे शब्द कम पड़ते, उलझ जाते हैं, भीग जाते हैं. Miss you mummy. Miss you so so much.

10 comments:

  1. माँ, बेटी की प्रथम गुरु, प्रथम सहेली और प्रथम हमराज़! और क्या क्या जो नहीं होती माँ........... उसके चले जाने के बाद जो रिक्तता, जो शून्यता, जो खालीपन जिंदगी में आ जाता है वह कोई नहीं भर पाता है, वह पीड़ा अवर्णनीय होती है.........शब्दों में बयां करना नामुमकिन है किन्तु आपने जिस तरह चित्र खींचा है वह भी शब्दों से परे है. बहुत सुन्दर है........आपका दर्द बाँट तो नहीं सकते किन्तु आपके दर्द में शरीक हुआ जा सकता है. ईश्वर आपको दर्द सहने की शक्ति दे यही कामना है.

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  2. खुशकिस्‍मत हैं वो जिनके पास सहेजने के लिए यादों के बजाय खुद मां है.

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  3. जिंदगी में अब तक बस पांच बार ही आँख में पानी (पता नहीं लोग उसे आंसू क्यूँ कहते हैं)आया है... और छठवी बार इसे पढने के बाद.. बहुत सेंटी कर दिया आपने.. ग़लत बात है.. 70 मिनट लग गए नार्मल होने में ... ;)

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  4. aaj bade samjhdaar lage blogjagat wale.. mujhe laga tha yahan bhi diwali ki shubhkamnayen de jayenge...

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  5. शब्द टहकता देख आया था पढने ...रचना ख़त्म नहीं कर पाया ...

    टहकता शब्द वाकई में रचना को अपने में संजोये है !
    अर्श

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  6. लफ्ज़ नहीं है....ढूंढना भी नहीं चाहता ....क्यूंकि मिले भी तो कह नहीं पायूँगा ....

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  7. पूजा,
    ऐसे मत लिखा करो, बहुत तकलीफ होती है. और डर भी लगता है .....शायद खोने का.....तुम्हारे किरदार से जब अपना किरदार बदल देते हैं तो घबरा जाते हैं ...हाँ, हम सब मुसाफिर ही हैं और दुनिया सराय भी.....लेकिन इंसान वही अच्छा है जिसे याद कर रोने वाले हो .....उम्मीद है हमारी रुखसती पर भी लोग रोयेंगे.....इसीलिए रिश्ते कमाने चाहिए

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  8. इस पोस्ट पर टिप्पणी करना शायद इसके महत्त्व को कुछ कम करना होगा...

    पूजा जी,
    मैं अरविंद शेष हूं। जनसत्ता में संपादकीय पन्ने पर।
    इस पन्ने पर इंटरनेट पर अच्छी हिंदी सामग्रियों पर आधारित एक साभार स्तंभ प्रकाशित होता है- "समांतर।" क्या इस पोस्ट को "समांतर" में प्रकाशित करने की इजाजत मिल सकती है...?
    चूंकि आपके ब्लॉग के आखिर में कॉपीराइट वगैरह की नोटिस लगी है, इसलिए पूछना जरूरी समझ रहा हूं। उम्मीद है, कोई जवाब भेजेंगी...

    अरविंद शेष,
    सहायक संपादक,
    जनसत्ता

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  9. mera email address ye hai-

    arvindshesh@gmail.com

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