27 October, 2010

दोस्ती की चोकलेट

" भटकती आत्मा!" अंसल प्लाजा में चलते हुए अचानक से पीछे से आवाज आई...जानती थी कि उसी की होगी...कुछ आवाजें कैसे वक्त की दहलीज पार कर एक झटके में वर्तमान में जाती हैंइतने साल हो गए पर एक लम्हा ही लगा वापस जाने और आने में

"बहुत मारूंगी तुम्हें, एक बार और बोल के देखो तो, क्या लगा रखा है, जब देखो भटकती आत्मा...सोच लो पीछे पड़ गई तो मर के भी पीछा नहीं छोड़ूंगी"

"बाप रे, भूत बनके भी...हम तो डर गए हूsss" शैतान बच्चों की तरह शक्लें बना कर चिढ़ाने लगा..."हम कब बोले की तुमसे पीछा छुड़ाने का कोई मन है मेरा वैसे अब कुछ ज्यादा देर नहीं हो गई, पीछे पड़ने के लिए, एक अदद बीवी और दो बच्चे हैं मेरे, तुमने ही बंदी पटाई थी, भूल भी गयी...बकलोल"

"हे भगवान् इस बेताल का कुछ करो...कितना दिमाग खाता है मेरा...ओफ्फो तुम यहाँ कैसे टपक पड़े? रुचिका की बच्ची लास्ट समय धोखा दे गई...आने दो दिल्ली वापस, सीपी के चार चक्कर नहीं दौड़वाए तो नाम बदल देना...हुंह"

"तुम्हारा नाम आफत कैसा रहेगा, या taperecorder या भूचाल...hmmm नाह...मज़ा नहीं आया...तुम शायद किसी और नाम से कभी अच्छी नहीं लगोगी" वो अपनेआप में खुशी खुशी मेरे लिए नाम चुन रहा था

सालों बाद अनायास उससे टकरा गई थी...कॉलेज में १० साल बाद के फंक्शन के लिए गिफ्ट्स खरीदने थे और रुचिका आखिरी समय गच्चा दे गई थी कि उसे कहीं और जाना है...और उसके बाद कमबख्त इसी का रोल नम्बर आता था...इसलिए शौपिंग उसके साथ करनी थीसालों बाद भी रोल नम्बर पीछा नहीं छोड़ रहे थे हमाराएक्साम टाइम में भी इसी रोल नम्बर के कारण हमेशा हमारी सीट अक्सर साथ या आगे पीछे पड़ती थी...इस का नाम नही लेते हैं, तसल्ली के लिए कह लेते हैं "ए"...वैसे भी सारे टाइम यूँ ही तो बुलाते थे..., अबे, आइटम, शैतान, नौटंकी, चिरकुट, चम्पक...उसका नाम कैसे नहीं भूली मुझे मालूम नहीं

दस साल, बहुत लम्बा अरसा होता है किसी की आवाज़ को भूलने के लिए...मगर stereotypes में ना कभी वो बंधा, ना उसकी आवाज़. उसका वही फैब-इण्डिया का कुरता और बिखरे से बाल...जो अब थोड़े कनपटी के पास से सफ़ेद होने लगे थे. पर उसकी खूबसूरती बढ़ती ही थी, एक सेकण्ड तो उससे नज़रें सच में नहीं हटी...मैं शायद भूल गयी थी कि वो कितना हैंडसम था. अपनी बेवकूफी पर हँसी आई, उसका चेहरा कोई भूलने वाली चीज़ तो नहीं थी. आखिर मेरे सारे फोटोग्राफी असाईनमेंट्स में वही तो मॉडल होता था. पर एक नंबर का बदमाश था, बदले में मुझसे अपनी सारी रेडिओ स्क्रिप्ट्स लिखवा लेता था और कॉपी चेक तो एनीवे हमको करना ही होता था मुफ्त में...ये तो मेरा फ़र्ज़ था टाईप. दुष्ट ऐसा कि प्यास लगती तो बोलता शानी, प्लीज पानी ले आओ तुमसे तेज कोई नहीं ला सकता...कोई और लाएगा जब तक मैं प्यास से मर जाऊँगा. मैं उसे अनगिन गालियाँ देती पानी की खाली बोतल उठा के चल देती थी.
हद तो तब हो गयी जब उसे मेरी क्लासमेट पसंद आ गयी...शाम को बोला प्लीज मेरे लिए पटा दो...बहुत हाई-फाई है मेरे से एकदम नहीं पटेगी. तुने जो इत्ते अच्छे फोटो खींचे हैं उसे दिखा ना...पहली डेट के दिन तुझे 'शामियाना' में डिनर कराऊंगा. खैर मैंने क्या किया क्या नहीं किया पता नहीं पर एक रात साढ़े नौ बजे पहुँच गया होस्टल गेट के बाहर...चल डिनर की प्रोमिस की थी ना...और मेरे लाख झगड़ने के बावजूद कि होस्टल दस बजे बंद हो जाएगा इतने में खा के वापस कैसे आउंगी...वो खींच कर ले ही गया और बमुश्किल आधी रोटी खाकर उठना पड़ा. तब से उसपर डिनर उधार गिन रही हूँ.
पर वो होता है ना...इश्क के बाद दोस्ती के लिए उतनी फुर्सत नहीं मिलती...और लड़कियां चाहे कित्ती अडवांस हो जाएँ अपने बॉयफ्रेंड की बेस्ट फ्रेंड के साथ कम्फर्टेबल नहीं हो पातीं. तो उस नौटंकी के इस इश्क के चक्कर में मेरे दो दोस्त खो गए. फिर भी कभी कभी होता था कि सीपी के मार्केट में हम शाम से गप्पें मारते देर रात कर देते और वो भागता आखिरी मेट्रो पकड़ने के लिए और मैं हॉस्टल की डेडलाइन के लिए.
फेयरवेल की मेरी रिकोर्डिंग में वो जितना अच्छा लगा अपनी शादी की रिकोर्डिंग में भी नहीं लगा. कॉलेज के बाद तो अलग शहर में नौकरी, फिर शादी...फिर बच्चे...जैसे सदियाँ गुज़र गयी फेयरवेल की वो विडियोटेप चलाये हुए. टीवी तो छोड़ो, ख्यालों में भी बच्चों के हंगामे ही नज़र आते थे.
और फिर मेल आया कि रीयूनियन है, रुचिका और मुझे गिफ्ट्स खरीदने का काम मिला है...उसी वक़्त गुस्सा आया कि रिकोर्डिंग वाला काम क्यों नहीं आया मगर वही कमबख्त रोल नंबर...और अब ये बेताल यहाँ टपक लिया. एक पल में ही सारी टेप रिवाइंड हो गयी...और दूसरे पल उसका रोना चालू हो गया कि ये शोपिंग कोई लड़कों का काम है भला...हद अन्याय है मुझे भूख लग आई है, कुछ खिलाओ ना. खाने-पीने, गिफ्ट खरीदने में शाम हो आई और हम सारा पोथा लेकर कैम्पस पहुंचे. वहां पूरी जमात जुटी हुयी थी. सब बैठ के अपडेट ले रहे थे...
दोस्ती कभी पुरानी नहीं पड़ती...कभी आउटडेट  नहीं होती. डीप फ्रिज में रखे चोकलेट की तरह, कभी भी निकल कर ज़बान पर रखो तुरत पिघल जाती है...और वही मिठास...वही 'हार्ट-वार्मिंग' अहसास. मैं उपमाओं में उलझी हुयी थी कि वो उधर से चिल्लाया 'शानी, प्यास लगी है...मर रहा हूँ...पानी ला दो...प्लीज शानी-पानी...शानी-पानी'. मैं मुस्कुराती हुयी उठी...और पानी की पूरी बोतल उसपर उड़ेल डी. लम्हा भर का असर था...पूरा हाल दस साल पुराने होली के माहौल में बदल गया.
ये मीठा अहसास अन्दर-बाहर भिगो गया.

14 comments:

  1. मेरी उपस्थिति आपकी निजता तो भंग नहीं कर रही है, क्षमा करें.

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  2. सुंदर लम्हों को अपने ब्लॉग में उकेरा है आपने कालेज के उन लम्हों की याद करा दी आपने जो वास्तव में फ्रिज में राखी थी जिसे मुह में लिया तो घुलते हुए मीठा अहसाश करा गयी मुझे अपने कालेज जब हम एल.एल .बी कर रहे थे एक ऐसे ही दोस्त जिसे बहुत ज्यादा तंग किया करते थे की याद आ गयी ! ये लम्हे ये पल हम बरसो याद करेंगे
    ये मौसम चले गए तो हम फरियाद करेंगे ...........................

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  3. सच कहा दोस्ती का अहसास हमेशा ताज़ा रहता है……………संस्मरण को बहुत सुन्दरता से उकेरा है।

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  4. @ वंदना जी...संस्मरण नहीं है...कल्पना है.

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  5. इस महत-कार्य के लिये आपको ढेर सारा कल्पना पुण्य मिले।

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  6. @कंचन दीदी...पर न तो मेरा नाम शानी है...न मेरे बच्चे हैं न मेरे कॉलेज को दस साल हुए हैं तो संस्मरण कैसे हुआ :)

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  7. बहुत खूबसूरती से कल्पना को शब्द दिए हैं ....

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  8. काहे की निजता राहुल जी, विगत चार सालों से ऐसे ही यह लहरें, समंदर किनारे बैठे हम सूर्य स्नान करने वालों को भींगा रही है. काहे की निजता ?

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  9. सही कहा आपने, दोस्ती कभी पुरानी नहीं पड़ती।

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  10. सौ बात की एक बात...दोस्ती कभी पुरानी नहीं पड़ती...

    कभी भी किसी भी मोड़ पर मिलो वह वैसा ही ताजा सा मिलता है...

    पर बात यह कि ऐसा कोई दोस्त हो...सबके नसीब में नहीं यह...

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  11. दीपावली की बहुत बहुत शुभकामनाये !कभी यहाँ भी पधारे ...कहना तो पड़ेगा ................

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