05 April, 2010

तीन दिनों का सफ़र

हमारे बीच एक ख़ामोशी का रिश्ता उग आया है. तीन दिन में सफ़र पूरा करने वाली इस ट्रेन के पहले पड़ाव से आखिरी पड़ाव के साथी हैं हम. इत्तिफाक से हम दोनों को खिड़की वाली आमने सामने की सीट मिली है.
दिन के ढलते हुए मैं उसके चेहरे के बदलते मौसमों को देख रही हूँ. उसके माथे पर की बनती बिगड़ती लकीरें सब्जेक्टिव थीं, उनका मतलब कुछ भी हो सकता था. पर हमेशा की तरह हम वही देखते हैं जो हमारी खुद की जिंदगी में जिया होता है. अक्स हमेशा किसी जान पहचान वाले का होता है. वो चेहरा तीन दिन के सफ़र में अपना हो गया था.
ये एक पुरानी कहानी है, तब जब ट्रेन के सफ़र में एक कूपा आपकी पूरी दुनिया होता था...बातें उस समय की हैं जब मोबाइल इस तरह से हमारी जिंदगी में दखल अन्दाजी नहीं कर सकता था. ये भी कारण है की ट्रेन में बने रिश्ते, बिना कहे एक जरूरी अनछुए हिस्से में महफूज़ रहते हैं हमेशा.
स्लीपर के थ्री टायर डिब्बे में बीच की सीट पर आधी चांदनी आती रहती थी, पेड़ों और कुछेक मकानों के अँधेरे के अलावा. उसके गाल सहलाती चांदनी से उसे बेहद तकलीफ होने लगी थी और उसके सफ़ेद पड़े चेहरे पर दर्द की सिलवटें पड़ने लगी थीं.
शहर छूटते वक़्त मैंने उसकी आँखों में सारे मौसम देखे थे. वो हर इमारत को एक प्यार भरी नज़र से उसके पूरे डीटेल्स के साथ संजो रहा था. और एक जगह उसकी आँखें फ्रीज हो गयी थीं...वो स्कूल दूर तक उसकी आँखों में लिपटा हुआ था. सोलह साल की उम्र में विश्वास करना कितना आसान होता है कि इंसान को जिंदगी में एक ही बार प्यार हो सकता है. छोटे शहर के स्कूल में खूबसूरत लड़की भी कमोबेश एक ही होती है पर क्लास के अधिकतर लड़के उसे अलग अलग रंग में याद रखते हैं. याद रखते हैं इसमें कोई शक नहीं.
उसके बारे में मुझे कुछ बातें बिलकुल अच्छी तरह याद हैं. वह किसी से विदा लिए बिना आया है. सिर्फ इसलिए कि उसे एक दिन जरूर मिलेगा पर तब कब वो कुछ बन चुका हो. पर अभी उसे डर लग रहा है कि वो इंतज़ार क्यों करेगी जब उसे मालूम भी नहीं है कि इंतज़ार करना है. उसकी आँखों में लाल बत्ती वाली एक गाड़ी की रौशनी जलती बुझती है...
उसने ट्रेन से उतरते हुए मुझसे भी विदा नहीं ली...वो रिश्ता जो शुरू नहीं हुआ कभी...आज भी अधूरा है. ट्रेन के सफ़र में आज भी मुझे उसकी याद आती है, लगता है सामने वाली सीट पर आके बैठेगा शायद तो मैं उसे बता सकूंगी. शशांक, मेरा नाम पूजा है...तुम्हारा नाम संजीवनी में मेरे फ़ेवरिट डॉक्टर का है, तुम्हारी आँखों का भूरा रंग मेरे सबसे प्यारे दोस्त की आँखों जैसा है...और मैं तुम्हें आज भी याद करती हूँ.

17 comments:

  1. ट्रेन की यात्रा कई बार मन की गहराईयों को उड़ील कर आपके सामने प्रस्तुत कर देती है । पटरियों की ध्वनि एक दार्शनिक पटल प्रस्तुत कर देती हैं आपके विचारों के यथा उद्भवार्थ । अपने में पूर्ण डूब जाना व उसे तदुपरान्त भूल जाना । विचित्र ही कहा जायेगा वह अनुभव ।

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  2. सही कहा प्रवीण जी

    विचित्र

    बिलकुल "मै और मेरी तन्हाई" टाईप पोस्ट है

    बहुत पसंद आई

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  3. कुछ लोग जीवन में मिलते हैं जिन्हें हम चाह कर भी नहीं भूल पाते, अच्छा लगा पढ़ कर !

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  4. ऐसी कितनी ही प्रेम कहानिया होगी.. जो शुरू भी ना हो सकी... ऊपर वाला कमाल का स्क्रिप्ट राईटर है..

    ये लिखावट नहीं है.. पटरी के तख्ते से इंस्पायर्ड शायद..!

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  5. पूजा ! आपके पास बेहद सशक्त भाषा है और भावों का संयोजन भी आप बहुत सतर्क होकर करतीं हैं ,बिल्कुल ऐसी शैली है जो सिर्फ पूजा उपाध्याय की ही हो सकती है , इसे बनाये रखिए .शुभकामनायें .

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  6. kush, इंस्पायर्ड इस सेन्स में की बहुत दिन से लिखना टाल रहे थे इस पोस्ट को, सागर का पढ़ के याद आया फिर से,सोचे लिख ही डालें.

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  7. बिना कमेन्ट पढ़े, सोचा था सबसे पहले लिखूंगा. इसे मैं तुम्हारी अब तक की सबसे बेस्ट पोस्ट कह सकता हूँ. तुमने कहीं ज्यादा बेहतर लिखा है... कहीं ज्यादा. यह लगातार तुम्हारी दूसरी पोस्ट पढ़ रहा हूँ... बाँध लिया तुमने दोनों पोस्टों में... क्या नए ऑफिस का असर है ? बहुत सृजनशील लग रही हो... पूरे रो में बह रही हो... जारी रहो... हम भी मरीज़ ही हैं.

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  8. जीवन के कारवा मे बहुत लोग मिलते है कुछ मिलते है कुछ बिछ्ड जाते है ।
    यही है सफर ...

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  9. मेला दिलों का आता है,
    एक बार आके चला जाता है........
    आते हैं मुसाफिर जाते हैं ..मुसाफिर....
    जाना ही है सबको.....
    तो क्यों आते हैं मुसाफिर..........???

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  10. पूजा आपने पिछली तिन पोस्टों से जीना दूभर कर रखा है , कमाल की बातें करती हो आप ... कमोबेस कहीं कहीं अपनी बात लगती है और लेखक वही पर सफल हो जाता है जब उसकी रचना दूसरों को अपनी तरह ही लगने लगे .... ऐसी लेखो के लिए डाक्टर साहिब के बाद आपके ब्लॉग पर आने का मन करता है पढने के लिए... सागर को ज्यादा नहीं पढ़ा है ... उनकी बातें भी तरीन होती हैं...
    बधाई
    अर्श

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  11. बहुत ख़ूबसूरती से सहेजा है और शब्दों में गुंथा है उस सफ़र के पलों को ...

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  12. कुछ इन्फेक्शन अच्छे होते है .अब यकीन आया ना

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  13. sach kaha aapne ki hum aksar vo hi dekhte hain jo dekhnaa chahte hain...apni hi zindagi ke aks samne waale ki aankhon mein khojte hain.... bahtu khoobsoorti se har rang sametaa hai aur yeh khoobsoorat post buni hai.... bilkul apni style mein... :)

    mere zehen mein bhi kuch shabd freeze ho gaye...
    "एक जगह उसकी आँखें फ्रीज हो गयी थीं...वो स्कूल दूर तक उसकी आँखों में लिपटा हुआ था. सोलह साल की उम्र में विश्वास करना कितना आसान होता है कि इंसान को जिंदगी में एक ही बार प्यार हो सकता है. छोटे शहर के स्कूल में खूबसूरत लड़की भी कमोबेश एक ही होती है पर क्लास के अधिकतर लड़के उसे अलग अलग रंग में याद रखते हैं. याद रखते हैं इसमें कोई शक नहीं."
    yeh post yaad rahegi ismein bhi koi shaq nahin...

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  14. कुश की ही बात को आगे बढाते हुये...

    ऐसी कहानिया ट्रेन के डिब्बो मे बडे आराम से उपजती थी.. लम्बी दूरी की यात्रा हो तो क्या कहने..
    बाते निकलती है तो निकलती चली जाती है..और बाते भी क्या
    एक वो जो वो दोनो करते है... और एक वो जो वो दोनो नही करते है..

    और ज़िन्दगी चलती जाती है..

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