04 February, 2010

अरसा पहले

हाँ वो भी एक दौर था, इश्क का

पहला सीन
दोस्त के कान में फुसफुसाते हुए, "पता है पता है, आज उसने मुझे मुड़ कर देखा" उसके चेहरे पर ऐसा भाव आता है जैसे ये राज़ वो मरते दम तक किसी को नहीं बताएगी, ख़ुशी ऐसी जैसे अचानक से एक्साम कैंसिल हो गए हों।

दूसरा सीन
लंच के बाद की एक हिस्ट्री क्लास, सब बैठे हुए खुद इतिहास हो जाने की मुद्रा में हैं। आगे से पीछे एक चिट पास होती है, मुड़ी हुयी। ये लड़कियां ही कर सकती हैं की बिना खोले कोई चिट ऐसे पास कर दें। चिट में लिखा हुआ है "वो तुमको देख रहा है, कब से" पढ़ने वाली एक चोर नज़र से देखने की कोशिश करती है, पर नाकामयाब, वो एकदम पीछे वाली सीट पर बैठा है। पेंसिल गिरती है, और शांत अनमने ऊँघे हुए क्लास में लगता है पटाखे चल गए...एक एक आवाज जैसे उसे याद है बहुत अच्छी तरह से। क्योंकि इसी आवाज से जुडी हुयी है उसकी धड़कनें और वो लम्हा जब वो उसे पहली बार देख कर एक झेंपी हडबडाई सी हँसी हँसा था। वो लड़का है, हँस सकता है उसे देख कर। पर वो कैसे दिखा दे, उसने झटके से मुंह फेर लिया, जैसे कोई मतलब ही नहीं है।

तीसरा सीन
उसकी डेस्क पर बहुत सी फूल पत्तियां बनी हैं...पर अगर गौर से देखा जाए तो उसमें एक अक्षर दीखता है बार बार। एक जगह उसने अपना नाम भी लिखा है। उसपर दो लड़कियां झुक कर देख रही हैं कुछ, किसी ने उसका नाम वहां लिखा है, दोनों नाम साथ में अच्छे लग रहे हैं। ये भी लंच के तुरंत बाद वाला क्लास है। "क्या लगता है उसी ने लिखा होगा?" दोस्त पूछती है। "पागल हो क्या", छोटा सा जवाब और बात वहीं ख़त्म.
(इश्क की हर कहानी में ये जुमला इतनी बार इस्तेमाल हुआ है की बस घिस गया है, पर ये घिस कर पुराना नहीं लगता, अपना लगता है)

चौथा सीन
टेंथ के एक्साम का आखिरी दिन। दोनों दोस्त चापाकल पर हैं, एक चला रही है दूसरी पीने के लिए ओक में पानी लेती है और आँखों पर मारे जाती है, उसे किसी को भी नहीं बताना की वो रो रही है। पर एक दोस्ती ऐसी भी होती है जिसमें कुछ बताना नहीं पड़ता। "अब?"

आखिरी सीन
आज वो शहर छोड़ के जा रही है, दोस्त से मिलने आखिरी बार उसके घर गयी है, शाम का वक़्त है हलकी धूप है और उसका रोना रुक ही नहीं रहा है। दोनों छत के एक कोने पर बैठी हुयी हैं।
"तुझे क्या लगता है मैं उसे कभी भूल पाउंगी?"
"हाँ रे, आराम से भूल जायेगी ऐसा है ही क्या उसमें"
"तुझे क्या लगता है, उसे कभी पता चलेगा की मेरे दिल में उसके लिए कुछ था, बोल ना उसे मालूम तो होता होगा ना?"
"हाँ रे, उसे सब मालूम होगा, पर तू उसे भूल जाना, समझी"
"नहीं भूल पाउंगी, देखना एक दिन होगा, बहुत सालों बाद, हम यहीं खड़े होंगे, तेरी शायद शादी हो रही होगी, मैं तब भी तुझसे यहीं कहूँगी की मैं उसे आज भी याद करती हूँ"
"तू एकदम पागल ही है"
"वैसे मोटी, पता है, मैं तुझे उससे भी ज्यादा प्यार करती हूँ, और तुझे उससे ज्यादा मिस करुँगी"

कई सालों बाद...
वही छत, वही दो दोस्त
"अब बता"
"अरे मैंने कहा ना...मैं तुझे उससे भी ज्यादा प्यार करती हूँ और तुझे उससे ज्यादा मिस करुँगी, सच कहा था।"

डिस्कलेमर: इस पोस्ट के सारे पात्र असली हैं, जगह असली है बस कहानी नकली है। इसे पढ़कर अगर कोई सेंटियाता है तो लेखक की कोई जिम्मेदारी नहीं है :)

15 comments:

  1. पूजा ऐसी कहानियों में डिस्क्लेमर की जरूरत ही नहीं। मैंने खुद कई दास्तानें तीसरे सीन के बाद खत्म होते हुए देखी हैं। हमारे यहां हर मध्यमवर्गीय परिवार में ऐसी कहानियों की कब्रें हैं जिनके प्रेत सारी उम्र वहां डोलते हैं।

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  2. सीन दर सीन पढ़ लिया..अब इस मोड़ पर सैंटिया भी जायें तो क्या!! :)

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  3. ओह.. ये तो मेरे स्टाइल से लिखा गया पोस्ट लगता है.. सीन एक, सीन दो करके.. सोचता हूँ केस ठोक दूं.. :)
    वैसे क्लास में मेरे पास कोई चित आता था और मुझे पता होता था की प्यारा-व्यार वाला कुछ चक्कर है तो कभी खोल कर देखा नहीं.. कभी कभी लड़के भी सरीफ होते हैं.. :)

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  4. अच्छी कहानी है. सच्ची है तो भी

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  5. मुआ इश्क होता ही ऐसा है.....ओर पहला तो बड़ी टीस देता है ..हाय !हमारे कॉलेज में तो एक लोकर रूम होता था जो डाकखाने का काम करता था .....ओर एक दो सहेलिया....
    .
    ...हमें याद आता है हमारा एक दोस्त था एक दिन परपोज़ कर आया ..फिर रोज जवाब पूछने लाइब्रेरी में नियमित समय पर हाजिरी ..... एक रोज लेट हो गए ....मोहतरमा डे स्कोलर थी ..अपना काइनेटिक उठा कर चली .तभी बारिश हो गयी.....भाई साहब ने गेट पर पकड़ लिया...जवाब के लिए ....मोहतरमा सेंटिया गयी..."हाँ" बोल दिया ....

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  6. बढ़िया प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई.
    ढेर सारी शुभकामनायें.

    संजय कुमार
    हरियाणा

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  7. तीन चीजों पर शक हो रहा है... एक तो तुम खरीदी गयी किताबें बहुत गहराई से पढ़ रही हो... दूसरा... कहानी भी असली है पर किसी और के लिए... तीसरा इसे और लम्बा लिखती तो मज़ा आता... तुमने बहुत जल्दी समेट दिया... यूँ कहूँ की एक सिलसिले का अंत कर दिया जो हमें कई और फ़रवरी में ले जाता... पर जादू तो कर ही दिया... बहुत कसावट है पोस्ट में... फटाफट कई यादें दे गया...

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  8. कोई टिप्पणी नहीं... समाज के बंधन प्यार के इरादों को पंख लगने से पहले ही कतर दिया करते हैं, तीसरे-चौथे सीन पर ही ज्यादातर ड्रामा के पर्दे गिर जाते हैं, य यों कहें कि गिरा दिये जाते हैं..

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  9. वाह दर्द भी बयान कर दिया .... सैटियाने से मना भी कर रही हो....वैसे भी कहते हैं पुरवाई चलती है तो दिल में कसक होइबे करी....

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  10. सच है पूजा जी ,ये सब के साथ घटित होता है कभी न कभी.इसमें सठियाने जैसी कोई बात नहीं......भाषा की स्वाभाविक-सम्प्रेश्नियेता की वजह से हर सीन अपना सा लगता है .बधाई......

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  11. एक और हीरा तुम्हारे बटुए से... इतने हीरे लाती कहा से हो.. :)

    हमारे एक मित्र डेट पर मन्दिर गये थे..मिलाप तो हुआ.. बाहर आये तो जूते गायब थे...नन्गे पैर जनाब वापस आये और वो उनकी फ़्स्ट डेट थी....

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  12. puja ji,
    krishn ki rataf se bot sasri shubhkamnaye...
    pehli baar apko likhane ka mauka mil raha hai..... blg to tab se parta aa raha hu jb tenth me para karta tha...
    mobille pe bass apke blog ka naam search karta aur apke khusuat sansar me ek baar dubki lag leta....
    par afsos iss baat ka raha ki kavi apko likh nahi paya...

    ek boht hi chote se shehar se hu..... siwan apke bot kareeb chapra.
    Jab dilli aya apne graduation ke liye aur JNU ki sadko se gujra to achanak ek ajib si kashish chaa gayi.... aisa laga, jaise varso se janta hu iss sadak ko.....
    Apki har ek rachna jivant ho gyi.....
    sach bolu to yaki hi naa hua ki jin sadko ko aapne apne kavita ka aadhar banaya tha aaj main uske kitne karib se gujar raha hu...


    bass.... meri tarf se dher sari shubhkamnaye apke mangalmay jivan ke liye.

    krishnkant
    Delhi

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