18 January, 2010

यूँ जिंदगी गुज़ार रहा हूँ तेरे बगैर

मुझे मालूम भी नहीं चला कब बाइक चलाना मेरे लिए बोलने या बात करने का पर्याय हो गया। जब मेरे शब्द मुझे बहुत परेशान करने लगते हैं, जब मुझे किसी से बात करने का बहुत मन होने लगता है मैं बाइक लेकर घर से बाहर निकल जाती हूँ...हाथ ऑटो pilot पर चला जाता है...टाइम पर अक्सेलेरटर देना, ब्रेक लेना, इन्डीकेटर देना...सब होता है...पर ऐसे में बहुत सी बातें दिमाग में घूमती रहती हैं, बहुत सी बातें जो मैं शायद किसी और से करना चाहती हूँ। सोचती हूँ इतना अकेले होना कितना दर्द देता है।

ऐसे में अचानक से, बस ऐसे ही सिगरेट पीना चाहती हूँ। मुझे अब इस बात पर यकीन होने लगा है की लोग सिगरेट सबसे ज्यादा बोरियत में पीते होंगे। शायद ऐसा भी लगता है की सिगरेट पीना कहीं ना कहीं खुद को किसी बात के लिए सजा देने के लिए भी पी जाती है। जहर पी के जिन्दा रहना मुमकिन नहीं है ना, इसलिए...धीमा जहर। जो एकदम से मौत नहीं देता, पर इस बात की गारंटी देता है की एक ना एक दिन मौत चुपचाप आके अपने आगोश में ले लेगी।

मुझे शब्द शोर सा लगने लगे हैं, नाकाबिले बर्दाश्त...पढ़ना मुश्किल हो रहा है। एक अजीब सा निर्वात है जिसे किसी चीज़ से भरने में खुद को असफल पा रही हूँ। पहले संगीत या किताबें बिलकुल से ऐसे अजीब विचार मुझे से दूर रखती थीं पर अब नहीं हो पा रहा है। कोई ब्रेक चाहिए मगर किस चीज़ से...क्या अपनेआप से?

कितना आसान होता अगर कभी हम किसी और की जिंदगी जी सकते किसी से यादें स्वैप कर सकते। मैं कुछ पल कुछ और सोच सकती, कोई और सपने देख सकती...

मार्लबोरो लाईट्स का नया डब्बा रखा हुआ है मेज की दराज में कई कागजों के नीचे...उस भरी दराज में बहुत कुछ है, तसवीरें, बिल्स, atm की रसीदें, खुदरा सिक्के, और ढेरों आलतू फालतू चीज़ें। जिस दिन मैं अपने आलस को दूर कर सकुंगी, वो डिब्बा ढूंढ सकुंगी...मगर उसके बाद शायद मेरे बिखरे पड़े घर में लाईटर या माचिस ढूंढना आसान नहीं होगा। बहुत साल हुए उस दिन को...जब लाईटर ख़रीदा था और सिगरेट सुलगाई थी, उसी दिन ये वादा भी तो किया था की इस लाईटर के ख़त्म होने के बाद कभी कोई सिगरेट नहीं पियूंगी। तभी घर के किसी कोने में फेंका था उसे...

पुरानी डायरियों में ये भी देखा था की मुझे भगवान पे बहुत विश्वास था...और बहुत सपने भी थे।

पैक में २० सिगरेट हैं जो पी नहीं, पर साथ में लाये १० चुईंग गम कब के ख़त्म हो चुके हैं, चलूँ कुछ चिल्गम खरीद के रखती हूँ, अगली बार जब सिगरेट पीने की इच्छा जागे उसके लिए।

ये एक शेर, जाने किसका है...उस बेतरह आती याद के लिए जो मुझे जीने नहीं देती।
यूँ जिंदगी गुजार रहा हूँ तेरे बगैर
जैसे कोई गुनाह किये जा रहा हूँ मैं।

9 comments:

  1. आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेद्वी का एक बड़ा
    प्रिय शब्द है 'सिसॄच्छा' जिसका सीधा सम्बन्ध
    रचना-उत्स से है , यहाँ पढ़ते हुए कुछ ऐसी ही मनः-स्थिति दिखी मुझे ...
    ......... आभार ,,,

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  2. क्या बात है पूजा? आज मेरे शब्दों को लिखे जा रही हो? मुझे भी जब फुरसत होती है तभी सिगरेट बहुत याद आती है, मगर सिर्फ एक पर अटक जाता हूं.. जब खुद को किसी बात पर सजा देनी होती है, तब 100 से अधिक स्पीड से गाड़ी चलाता हूं या फिर चेन स्मोकिंग करने लगता हूं.. एक के बाद एक सिगरेट के जलने के साथ अपने भीतर का अपने ऊपर किया हुआ गुस्सा भी शांत होने लगता है..

    तुम्हारा यह पोस्ट पढ़कर लग रहा है कि तुमसे मिले बिना नहीं आना चाहिये था बैंगलोर से.. सॉरी फॉर दैट.. ऑफिस के बाद फोन करता हूं, फिर जी भर कर डांट लेना या फिर गालियां सुना देना..

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  3. This comment has been removed by the author.

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  4. एक ठो मालबोरो हमको भी देना... यहाँ ठंढ बहुत है...

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  5. वो क्‍या था जो आपने कहा

    वो क्‍या था जो आप कहना चाहते थे ??

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  6. ऐसा कैसे हो सकता है...जो बातें आज मैं ऑफिस ड्राइव करते वक्त सोच रही थी...वो तुमने लिख दीं...थोड़ा सा अजीब है...पर एक जैसे इंसान हो सकते हैं तो एक ही वक्त में एक जैसी सोच भी हो सकती है...शायद...

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  7. सिगरेट ....कभी कभी केटालिस्ट की तरह बिहेव करती है नहीं .....ओर कभी कभी बेख्याली शगल सी हो जाती है ...शेर किसने लिखा था कल दोबारावापसी में बतायूँगा

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  8. हे राम PD चाय काफी नहीं पीने वाले, सिगरेट ?

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  9. उफ्फ ये ख़याल !
    इंसान कभी कभी....नही शायद अक्सर ख़यालों के भँवर में किस कदर खुद को पाता है...और फिर ये भी तो एक ख़याल ही है

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