20 October, 2008

चेतना

जब कि मैं
पूरी की पूरी पिघल कर
ख्वाहिश बन गई थी
इश्वर ने
तुम्हारे सांचे में मुझे ढाल दिया

जब तक मैं तुझमें नहीं होती हूँ
तू खोखला होता है
और जब तक तेरी बाहें मुझसे जुदा
मैं असुरक्षित

नियति नहीं थी ये
एक सोच का सार्थक होना था
सृजन का उद्देश्य निर्धारण
इस सोच से हुआ था

अग्निशिखा बन गया अंतस
और उचक कर छू लिया
उस ज्योति को
जिसमें से आत्माएं निकलती हैं

प्रकाश, आँच, तप, तेज
सब मिल गए
ताकि तू बन सके मेरा सांचा
ताकि आकार ले सके प्रकृति

क्या तुझे याद नहीं
मैं प्रकृति हूँ तू पुरूष

19 comments:

  1. प्रकाश, आँच, तप, तेज
    सब मिल गए
    ताकि तू बन सके मेरा सांचा
    ताकि आकार ले सके प्रकृति

    sunder shabdha
    regards

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  2. नियति नहीं थी ये
    एक सोच का सार्थक होना था
    सृजन का उद्देश्य निर्धारण
    इस सोच से हुआ था


    बहुत ही अच्‍छा लिखा है आपने पूजा जी गहरी सोच के धनी हो आप बधाई हो

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  3. प्रकाश, आँच, तप, तेज
    सब मिल गए
    ताकि तू बन सके मेरा सांचा
    ताकि आकार ले सके प्रकृति

    jabardast soch hai... bahut hi umda

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  4. जब तक मैं तुझमें नहीं होती हूँ
    तू खोखला होता है
    और जब तक तेरी बाहें मुझसे जुदा
    मैं असुरक्षित
    वाह! बहुत सुंदर लिखा है.

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  5. जड़ और चेतन को बहुत ही बेहतरीन तरीके से शब्दों में पिरो दिया। बधाई।

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  6. क्या तुझे याद नहीं
    मैं प्रकृति हूँ तू पुरूष

    सही और सुंदर ..बहुत ही प्यारी लगी यह रचना

    ReplyDelete
  7. प्रकाश, आँच, तप, तेज
    सब मिल गए
    ताकि तू बन सके मेरा सांचा
    ताकि आकार ले सके प्रकृति

    क्या तुझे याद नहीं
    मैं प्रकृति हूँ तू पुरू
    वाह! बहुत सुंदर लिखा है.ष

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  8. जब कि मैं
    पूरी की पूरी पिघल कर
    ख्वाहिश बन गई थी
    इश्वर ने
    तुम्हारे सांचे में मुझे ढाल दिया

    वाह ! आपकी सोच भावना और कल्पनाशीलता को नमन.बहुत बहुत सुंदर भावपूर्ण लिखा है आपने.पढ़कर मन मुग्ध हो गया.

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  9. hi dear friend,
    how r u?
    pls visit this blog for great information..

    http://spicygadget.blogspot.com/.

    thank you dear
    take care..

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  10. आपने इसकी सुंदर व्‍याख्‍या की है-
    मैं प्रकृति हूँ तू पुरूष

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  11. क्या तुझे याद नहीं
    मैं प्रकृति हूँ तू पुरूष

    -बहुत जबरदस्त!!क्या बात है!

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  12. शब्द बहुत ही आसपास घुमते हुए लगते हैं। बहुत सुंदर!
    आरी को काटने के लिए सूत की तलवार???
    पोस्ट सबमिट की है। कृपया गौर फरमाइएगा... -महेश

    ReplyDelete
  13. शब्द बहुत ही आसपास घुमते हुए लगते हैं। बहुत सुंदर!
    आरी को काटने के लिए सूत की तलवार???
    पोस्ट सबमिट की है। कृपया गौर फरमाइएगा... -महेश

    ReplyDelete
  14. नियति नहीं थी ये
    एक सोच का सार्थक होना था
    सृजन का उद्देश्य निर्धारण
    इस सोच से हुआ था

    kya baat hai
    thanks..

    ReplyDelete
  15. जब कि मैं
    पूरी की पूरी पिघल कर
    ख्वाहिश बन गई थी
    इश्वर ने
    तुम्हारे सांचे में मुझे ढाल दिया

    अग्निशिखा बन गया अंतस
    और उचक कर छू लिया
    उस ज्योति को
    जिसमें से आत्माएं निकलती हैं
    क्या तुझे याद नहीं
    मैं प्रकृति हूँ तू पुरूष


    वाह क्या कहूं मैं पूजा, बहुत ही खूबसूरत शब्द जैसे एक एक मोटी माला में पिरो दिया गया हो. बहुत शानदार, गहरे अर्थ लिए.
    मएरी बधाई स्वीकार करें.

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  16. जब कि मैं
    पूरी की पूरी पिघल कर
    ख्वाहिश बन गई थी
    इश्वर ने
    तुम्हारे सांचे में मुझे ढाल दिया

    अग्निशिखा बन गया अंतस
    और उचक कर छू लिया
    उस ज्योति को
    जिसमें से आत्माएं निकलती हैं
    क्या तुझे याद नहीं
    मैं प्रकृति हूँ तू पुरूष


    वाह क्या कहूं मैं पूजा, बहुत ही खूबसूरत शब्द जैसे एक एक मोटी माला में पिरो दिया गया हो. बहुत शानदार, गहरे अर्थ लिए.
    मएरी बधाई स्वीकार करें.

    ReplyDelete
  17. इतना मीठा इतना खट्ठा जैसे इमली जैसे मट्ठा
    ऐसा ही होता है न
    अपना सा स्वाद

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  18. नियति नहीं थी ये
    एक सोच का सार्थक होना था
    सृजन का उद्देश्य निर्धारण
    इस सोच से हुआ था

    बहुत सुंदर

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  19. जब कि मैं
    पूरी की पूरी पिघल कर
    ख्वाहिश बन गई थी
    इश्वर ने
    तुम्हारे सांचे में मुझे ढाल दिया

    आप के शिल्प को सलाम। आपकी लेखनी को शुभकामनाएं
    prakashbadal.blogspot.com

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