21 June, 2008

सिजोफ्रेनिया...कितना सच कितना सपना

कल मैंने "a beautiful mind" देखी, फ़िल्म एक गणितज्ञ की सच्ची जिंदगी पर आधारित है। नाम है जॉन नैश, प्रिन्सटन यूनिवर्सिटी में अपनी phd करने आया है, अपने आप में गुम रहता है कम लोगों से दोस्ती करता है, और उसका रूममेट है चार्ल्स। जॉन एक बिल्कुल ओरिजनल थ्योरी देता है वो। बाद में वह पेंटागन से जुड़े गवर्मेंट के काम में काफ़ी मदद करता है। वह कोड बड़ी आसानी से ब्रेक कर लेता है। इसलिए सरकार उसकी सुविधाएं लेती है।

हम बाद में पाते हैं की वो स्चिजोफ्रेनिया से पीड़ित है उसका रूममेट चार्ल्स सिर्फ़ एक हैलुसिनेशन है। यही नहीं वह जिन कोड्स को ब्रेक करने के लिए दिन रात एक किए रहता है वो कोड्स भी उसके मन का वहम है। जिस व्यक्ति के लिए वो काम कर रहा है वो एक्जिस्ट ही नहीं करता।


इस फ़िल्म में हम प्यार, rationality, और इच्छाशक्ति देखते हैं। मुझे फ़िल्म काफ़ी पसंद आई। इसका एक पहलू खास तौर से मुझे व्यथित करता रहा। इसमें जॉन उन व्यक्तियों को इग्नोर करता है जो सिर्फ़ उसकी सोच में हैं। एक जगह वो कहता है की वो चार्ल्स को मिस करता है। इसी विषय पर एक और फ़िल्म देखी थी १५ पार्क अवेन्यु, कहानी में ये सवाल उठाया गया था कि सिर्फ़ इसलिए कि एक स्चिजोफ्रेनिक इंसान जिन लोगों के साथ रहता है उन्हें बाकी दुनिया नहीं देख पाती उनका होना negate कैसे हो जाता है। आख़िर उस इंसान के लिए ये काल्पनिक लोग उसकी जिंदगी का हिस्सा हैं , वो उनके साथ हँसता रोता है। यहाँ बात फ़िर से मेजोरिटी की आ जाती है, क्योंकि उसका सच सिर्फ़ उसका अपना है बाकी लोग उसमें शामिल नहीं हैं उसे झूठ मान लिया जाता है।

इन लोगों को दुःख होता होगा, अपने ये दोस्त छूटने का...और दुनिया इनके गम को समझने की जगह इन्हें पागल बुलाती है। क्यों? सिर्फ़ इसलिए की उनका सच हमारे सच से अलग है, क्योंकि हम उनकी दुनिया देख नहीं सकते इसका मतलब ऐसा क्यों हो कि ये दुनिया नहीं है। कई बार ऐसे लोगों को भूत वगैरह से पीड़ित मान लिया जाता है और इनकी जिंदगी जहन्नुम बन जाती है।

कभी कभी लगता है...काश हम थोड़े और संवेदनशील होते, दूसरों के प्रति...थोड़ा और accommodating होते किसी के अलग होने पर। किसी को एक्सेप्ट कर पाते उसकी कमियों, उसकी बीमारियों के साथ।

फिल्में ऐसी होनी चाहिए जो देखने के घंटों बाद तक आपको परेशान करती रहे, सोचने को मजबूर करे। काश ऐसी कुछ अच्छी फिल्में हमारे यहाँ भी बनती... वीकएंड है और देखने को कोई ढंग की मूवी नहीं।

लगता है मुझे जल्द ही डायरेक्शन में कूदना पड़ेगा। भारतीय फ़िल्म इंडस्ट्री मुझे पुकार रही है। :-D :-)

6 comments:

  1. पहले तो आपको बधाई। इसी बहाने कुछ अच्छी और भावनात्मक फिल्में देखने को मिल जाएंगी। और हां आप जो बात कह रही हैं उस पर एक सार्थक बहस हो सकती है।

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  2. इस फिल्‍म का जिक्र तो मैंने भी सुना है, लेकिन देख नहीं सका, कभी मौका ही नहीं मिला,
    लेकिन एक बात ज़रूर कहना चाहूंगा, जिस समाज में एक अच्‍छे खासे इंसान के प्रति ही असंवेदनशील रवैया अपनाया जाता हो, उस समाज से किसी मानसिक बीमारी से जूझ रहे व्‍यक्ति के प्रति संवेदनशीलता की उम्‍मीद बेमानी है, और बेहद सतही भावुकता भरी उम्‍मीद है,
    हां, ऐसे समाज को बदलना चाहिए...

    यदि आप गंभीरता से फिल्‍म बनाने की सोचती हैं तो आपको शुभकामनाएं

    मेरा इस टिप्‍पणी के जरिए आपकी भावनाओं को ठेस पहुंचाने का इरादा नहीं है, बस अपने विचार व्‍यक्‍त कर रहा हूं...

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  3. ye film mene bahut pehle dekhi thi kaafi achhi movie hai, russel crowe ka abhinay bahut jaandar hai. Mere khayal se ye kisi ki real life per bani hai...

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  4. सुन्दर फिल्मचर्चा। अब आप कूद ही पड़िये फ़िल्म निर्माण में।

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  5. Tarun ji, aapka sochana bilkul sahi hai.. ye real story hai..
    maine college ke samay dekhi thi.. bahut badhiya cinema..

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  6. जब भी ऐसी फ़िल्मबनने का मन करे तो हॉलीवुड मैं ही कोशिश करना यहाँ इस परकार की स्वेंद्ल्शील और सार्थक फ़िल्म का क्या हर्ष होने वाला है ये तो आप जानते ही हैं।
    इस फ़िल्म को पुरस्कार तो मिल जायँगे पर दर्शक नही।
    अपनी सोच को तस्वीर मैं उतारना थोड़ा मुश्किल हैं पर ना मुमकिन नही इस लिए आप को शुभ कामना देना चाहूँगा।

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