08 October, 2007

बहुत पुराने हैं ये यादों के अंधड
ये उठते हुये धूल के गुबार

ये खतों के ढ़ेर से निकलते काक्रोच भी
राज़दार हो गए हैं हमारी दास्ताँ के

तुम्हारे आंसुओं से सील गयी थी कमरे की हवा
दीवारें, फर्श सब गीला गीला सा लगता है आज तक

कई बार फिसल भी जाता हूँ इस कमरे में आ कर
पर तुम्हारी खिलखिलाहट अब नहीं गूँजती

जाने कब से मैंने एक कमरा सजा कर रखा है
जाने कब तक मैं इस कमरे को सजाकर रखूँगा

तुम्हारे लिए
तुम कहती थी ना...मुझे एक घर चाहिये

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