19 June, 2007

अनदेखा

चांदनी अब कफ़न सी लगती है
धूप जलती चिता सी लगती है
चीखते सन्नाटों में घिरी वो
नयी दुल्हन विधवा सी लगती है...

कभी देखी तुमने उसकी आंखें
बारहा जलजलों को थामे हुये
चुभते नेजों पे चलती हुयी लडकी
साँस भी लेती है तो सहमी हुये...

याद है तुमको वो बेलौस हंसी?
जो हरसिंगार की तरह झरा करती थी
याद है सालों पहले के वो दिन
जब वो खुल के हंसा करती थी...

1 comment:

  1. पर, ऐसा क्या हो गया था? कविता अधूरी सी लगती है...

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