04 June, 2007

चाह !!!

सदियों से एक चाह दबी है मेरे इस शोषित मन में...
एक पंछी की तरह एक दिन मैं उड़ती उन्मुक्त गगन में

गीले गोयठों की अंगीठी फूँक फूँक सुलगाऊँ जब
अपने नन्हे हाथों से मैं भारी भात पसाऊँ जब

सूरज की एक नयी किरण धुली थाली से टकराये
और एक धुंधला सा उजियारा कमरे में फैला जाये

मेरे मन का अँधियारा भी कुछ कम होने लगता है
सपनों के कुछ बीज मेरा मन पल पल बोने लगता है

मन करता है मेरा एक दिन देहरी के बाहर जाऊं
बिन घूंघट के दुनिया देखूं, खेतों में फिर दौड़ आऊँ

कहते हैं नया स्कूल खुला है गांव के बाहर पिछले मास
कोई मेरा नाम लिखा दे तब से लगी हुयी है आस

पर मैं किससे कहूँ और फिर मेरी बात सुनेगा कौन
चुप चुप पूजा घर में रोती दिन भर साधे रहती मौन

मेरे जैसे कितनी हैं जो हर घर में घुटती रहती
जीती हैं पर कितना जीवन पाटी में पिसती रहती

काश कि मेरा होता एक दिन ...मेरा सारा आसमान
इतनी शक्ति एक बार...बस एक बार भर लूँ उड़ान

4 comments:

  1. कल्पना की वादियों में इसी तरह निसंकोच उडान भरती रहें,एक न एक दिन मंजिल अवश्य मिलेगी.

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  2. bahut acchaa likhti hain. aise hi likhti rahe. shubhkaamnaayen.

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  3. madmast but very touchy

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  4. मुझे भी ऐसे समय में साथ रखना... बचपन की बहुत तमन्ना है... स्कूल जाने की

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